श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय 1 श्लोक 2
सञ्जय उवाच
दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा।
आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत्।।
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🔹 अनुवाद (Hindi)
संजय बोले — उस समय राजा दुर्योधन ने पाण्डवों की सेना को युद्ध-व्यवस्थित देखकर अपने गुरु आचार्य द्रोणाचार्य के पास जाकर ये वचन कहे।
🔍 विस्तार से व्याख्या
1. पृष्ठभूमि
कुरुक्षेत्र के युद्धभूमि में दोनों पक्ष (कौरव और पाण्डव) अपनी-अपनी सेनाओं को सजाकर खड़े हैं।
धृतराष्ट्र ने संजय से युद्ध का हाल पूछा था।
2. दुर्योधन की स्थिति
जब दुर्योधन ने पाण्डवों की सेना को व्यवस्थित और मजबूत रूप में खड़ा देखा, तो उसके मन में भय और चिंता जागी।
हालांकि वह बाहरी रूप से आत्मविश्वास और साहस दिखाने का प्रयास करता है।
3. दुर्योधन ने किससे बात की?
दुर्योधन सीधे अपने सेनापति भीष्म से कुछ नहीं कहता, बल्कि अपने गुरु द्रोणाचार्य से कहता है।
इससे यह झलकता है कि वह मनोवैज्ञानिक रूप से आश्वासन चाहता है, क्योंकि द्रोणाचार्य उसकी शिक्षा के गुरु थे।
4. गुप्त संदेश
इस श्लोक में दिखता है कि युद्ध की शुरुआत से पहले ही भय और असुरक्षा दुर्योधन के मन में बैठ चुकी थी।
✨ दार्शनिक दृष्टि से अर्थ
यह श्लोक हमें बताता है कि अहंकार और अन्याय के मार्ग पर चलने वाला व्यक्ति, चाहे कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो, भीतर से हमेशा भयभीत रहता है।
दुर्योधन के शब्दों से ही यह स्पष्ट है कि पाण्डवों की धर्मपरायण सेना उसे भारी पड़ रही थी।
यह एक तरह से धर्म और अधर्म की टकराहट का पहला संकेत है।

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