श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 1, श्लोक 20
अथ व्यवस्थितान् दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान् कपिध्वजः।
प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः ॥1: 20 ॥
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शब्दार्थ
अथ – तब
व्यवस्थितान् – पंक्तिबद्ध (युद्ध के लिए सज्ज)
दृष्ट्वा – देखकर
धार्तराष्ट्रान् – धृतराष्ट्र के पुत्रों (कौरवों) को
कपिध्वजः – जिनके रथ पर हनुमानजी का ध्वज (झंडा) है, अर्थात् अर्जुन
प्रवृत्ते – आरम्भ हो चुके
शस्त्र-सम्पाते – अस्त्रों के प्रहार में
धनुः उद्यम्य – धनुष उठाकर
पाण्डवः – अर्जुन
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भावार्थ
जब युद्ध आरम्भ होने ही वाला था, और कौरवों की सेना व्यवस्थित रूप से खड़ी थी, तब कपिध्वज अर्जुन (जिनके रथ के ध्वज पर पवनपुत्र हनुमान विराजमान थे) ने अपना धनुष उठाया।
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विस्तार से व्याख्या
1. कपिध्वज का महत्व
अर्जुन का विशेष नाम कपिध्वज है क्योंकि उनके रथ पर हनुमानजी का ध्वज फहराता था।
यह ध्वज विजय, शक्ति और आत्मबल का प्रतीक है।
हनुमानजी की उपस्थिति अर्जुन को मानसिक शक्ति और भगवान श्रीराम की स्मृति प्रदान करती थी।
2. युद्ध की स्थिति
शंख बज चुके थे।
दोनों सेनाएँ युद्ध के लिए तैयार खड़ी थीं।
इसी समय अर्जुन ने अपना गांडीव धनुष उठाया।
3. अर्जुन का मानसिक भाव
अर्जुन वीर और महाबली योद्धा थे।
लेकिन जैसे ही वे अपने संबंधियों, गुरुजनों और मित्रों को युद्धभूमि में सामने देखने लगे, उनका मन विचलित होने लगा।
यह श्लोक अर्जुन के उस क्षण को दर्शाता है जब वे शारीरिक रूप से युद्ध हेतु तैयार होते हैं, पर भीतर ही भीतर उनका हृदय दुविधा से भरने लगता है।
4. दार्शनिक दृष्टिकोण
कपिध्वज का उल्लेख यह दर्शाता है कि दिव्य शक्ति (हनुमान, यानी भक्ति व शक्ति का संगम) अर्जुन के साथ थी।
फिर भी मानव-मन जब मोह और ममता से भर जाता है, तो दिव्य सहारा होते हुए भी विचलित हो सकता है।
यही कारण है कि आगे चलकर अर्जुन मोहग्रस्त हो जाते हैं और कृष्ण से मार्गदर्शन की याचना करते हैं।
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निष्कर्ष
गीता के इस श्लोक में अर्जुन के युद्ध-प्रारम्भ का दृश्य है।
बाहर से वह वीर योद्धा तैयार हैं।
उनके पास दिव्य धनुष गांडीव और हनुमानजी का ध्वज है।
लेकिन यह श्लोक आने वाली अर्जुन की आंतरिक उलझन और मोह की भूमिका तैयार करता है।
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