श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय 1 श्लोक 3

                            श्लोक 1.3

                            पद्यानुसार
            पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम्।
           व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता।।1.3।।

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हिन्दी अनुवाद

हे आचार्य! देखिए पाण्डुपुत्रों की इस महान् सेना को, जिसे आपके ही बुद्धिमान शिष्य द्रुपदपुत्र (धृष्टद्युम्न) ने सुव्यवस्थित रूप से सजाया है।


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व्याख्या (विस्तार से)

1. धृतराष्ट्र के प्रश्न के बाद — संजय कुरुक्षेत्र का वर्णन कर रहे हैं।


2. यहाँ दुर्योधन अपने गुरु द्रोणाचार्य से कहता है – "आचार्य, देखिए! पाण्डवों की विशाल सेना खड़ी है। इसे आपके ही शिष्य धृष्टद्युम्न ने व्यवस्थित किया है।"


3. दुर्योधन की बात में दो भाव छिपे हुए हैं –

व्यंग्य (Taunt): द्रोणाचार्य को याद दिलाना कि उनके ही शिष्य (धृष्टद्युम्न), जिन्हें द्रोण ने शिक्षा दी थी, आज उनके विरुद्ध युद्ध के लिए खड़े हैं।

चिंता (Fear): वह देख रहा है कि पाण्डवों की सेना बहुत अच्छी तरह से व्यवस्थित है, जिससे उसका मन असुरक्षित महसूस कर रहा है।



4. धृष्टद्युम्न का परिचय:

धृष्टद्युम्न, राजा द्रुपद के पुत्र थे।

इनका जन्म द्रोणाचार्य का वध करने के लिए हुआ था।

फिर भी द्रोणाचार्य ने ही इन्हें युद्धविद्या सिखाई थी।

यही कारण है कि दुर्योधन ने जान-बूझकर "तव शिष्येण" (आपके शिष्य द्वारा) शब्द का उपयोग किया, ताकि द्रोणाचार्य को थोड़ा कटाक्ष लगे।



5. यह श्लोक हमें यह सिखाता है कि –

कभी-कभी शिष्य भी गुरु के विरुद्ध हो सकता है यदि धर्म का प्रश्न हो।

असत्य का साथ देने पर व्यक्ति स्वयं असुरक्षित हो जाता है।

दुर्योधन का मन भीतर से भयभीत था, तभी वह बार-बार अपनी सेना की ताकत दिखाने की कोशिश करता है।





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👉 संक्षेप में सार:
यह श्लोक दुर्योधन के मन की स्थिति को प्रकट करता है। बाहर से वह आत्मविश्वास दिखा रहा है, पर भीतर से भयभीत है। वह अपने गुरु को याद दिला रहा है कि उनके ही शिष्य धृष्टद्युम्न ने पाण्डवों की सेना को सुसज्जित किया है, और अब वही उनके विरुद्ध खड़ा है।

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