भगवद् गीता अध्याय 1, श्लोक 31

भगवद् गीता अध्याय 1, श्लोक 31


न च शक्नोम्यवस्थानुं भ्रान्तीव च मे मनः।
निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव॥ 1:31॥



शब्दार्थ (शब्द-दर-शब्द अर्थ):

न च शक्नोमि – और मैं समर्थ नहीं हूँ

अवस्थानुम् – स्थिर रहने के लिए

भ्रान्तीव – जैसे मोहग्रस्त हो गया हूँ

मे मनः – मेरा मन

निमित्तानि – लक्षण/संकेत

च पश्यामि – मैं देख रहा हूँ

विपरीतानि – विपरीत, अशुभ

केशव – हे केशव (भगवान श्रीकृष्ण)



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हिंदी अनुवाद:

हे केशव! मेरा मन भ्रमित-सा हो गया है। मैं स्थिर होकर खड़ा भी नहीं रह पा रहा हूँ। मुझे चारों ओर केवल अशुभ लक्षण ही दिखाई दे रहे हैं।


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विस्तृत व्याख्या:

इस श्लोक में अर्जुन अपने भीतर की अस्थिरता और मानसिक स्थिति को व्यक्त कर रहे हैं।

युद्धभूमि में खड़े होकर जब अर्जुन ने अपने स्वजनों, बंधु-बांधवों, गुरुजन और मित्रों को सामने देखा, तो उनका मन अत्यंत विचलित हो गया।

वे कहते हैं कि मेरा मन भ्रांति से भर गया है, मैं अब स्थिर होकर खड़ा भी नहीं रह पा रहा हूँ।

युद्ध के स्थान पर जहाँ वीरता, शक्ति और आत्मविश्वास की आवश्यकता होती है, वहाँ अर्जुन के हृदय में केवल कमजोरी और मोह उत्पन्न हो रहा है।

अर्जुन कहते हैं कि चारों ओर मुझे अशुभ संकेत दिखाई दे रहे हैं। अर्थात् उन्हें लगता है कि इस युद्ध से कोई भी शुभ फल प्राप्त नहीं होगा—न विजय, न सुख, न शांति।

यह श्लोक दर्शाता है कि अर्जुन के भीतर का धर्मसंकट और मानसिक द्वंद्व चरम पर पहुँच चुका है।



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दार्शनिक महत्व:

यह श्लोक हमें यह सिखाता है कि जब मन मोह और आसक्ति से भर जाता है, तब व्यक्ति के निर्णय लेने की क्षमता नष्ट हो जाती है।

विपरीत परिस्थितियों में जब हम अशांत होते हैं, तो हमें हर ओर केवल नकारात्मकता और अशुभ संकेत दिखाई देने लगते हैं।

इस अवस्था में श्रीकृष्ण ही अर्जुन (और हर साधक) को मार्गदर्शन देने वाले हैं।





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