श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 1, श्लोक 33
श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 1, श्लोक 33
येषामर्थे काङ्क्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च।
त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च।।1.33।।
---
हिंदी अनुवाद
जिनके लिए हम राज्य, भोग और सुख की इच्छा रखते थे, वे ही सब अपने प्राण और धन को त्यागकर युद्धभूमि में खड़े हैं।
---
विस्तृत भावार्थ
इस श्लोक में अर्जुन की मानसिक स्थिति और भी स्पष्ट दिखाई देती है।
अर्जुन कहते हैं कि “हे कृष्ण! जिन स्वजनों, भाइयों, मित्रों और गुरुजनों के लिए हम राज्य, ऐश्वर्य और सुखों की इच्छा रखते थे, वे सभी इस युद्धभूमि में हमारे सम्मुख खड़े हैं।”
इसका अर्थ यह है कि भोग और राज्य का आनंद तभी है जब अपने स्वजन साथ हों।
लेकिन जब वही स्वजन इस युद्ध में शत्रु बनकर सामने खड़े हों, तो उनके वध के बाद राज्य या भोग का कोई महत्व नहीं रह जाता।
अर्जुन का यह कथन उनके मोह और करुणा से उत्पन्न द्वंद्व को प्रकट करता है।
उनका मन कहता है कि “अगर प्रियजनों को ही खोना पड़े, तो विजय, राज्य और धन का क्या उपयोग?”
इस प्रकार अर्जुन अपने धर्म (क्षत्रिय का कर्तव्य – न्याय के लिए युद्ध करना) और मोह (परिवार व गुरु के प्रति स्नेह) के बीच उलझ जाते हैं।
---
आध्यात्मिक दृष्टि से अर्थ
1. जीवन में हम भी अक्सर उद्देश्य और साधन को ग़लत समझ लेते हैं।
जैसे अर्जुन सोचते हैं कि राज्य और सुख का उद्देश्य प्रियजनों के लिए है।
परंतु गीता हमें यह सिखाती है कि कर्तव्य (धर्म) ही सर्वोपरि है, व्यक्तिगत मोह नहीं।
2. यह श्लोक हमें यह भी सिखाता है कि जब हम जीवन में मोह और आसक्ति के कारण अपने कर्तव्यों को छोड़ने लगते हैं, तो बड़ी हानि होती है।
---
👉 सार रूप में, गीता 1:33 में अर्जुन कहते हैं कि प्रियजनों के बिना राज्य, भोग और सुख अर्थहीन हैं। इसलिए वे युद्ध करने से और भी अधिक विरक्त हो जाते हैं।
Comments
Post a Comment