श्रीमद्भगवद्गीता 2:39 – सांख्य से कर्मयोग तक की सुन्दर यात्रा श्रीमद्भगवद्गीता का दूसरा अध्याय, जिसे सांख्ययोग कहा जाता है, पूरे ग्रन्थ की नींव के समान है। इसी अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण धीरे–धीरे अर्जुन के भीतर छाए हुए मोह, शोक और भ्रम को ज्ञान के प्रकाश से दूर करते हैं। गीता 2:39 वह महत्वपूर्ण श्लोक है जहाँ तक भगवान कृष्ण ने आत्मा–देह, जीवन–मृत्यु और कर्तव्य का सिद्धान्त (Theory) समझाया और अब वे कर्मयोग की व्यावहारिक शिक्षा (Practical) की ओर प्रवेश कराते हैं। इस श्लोक में भगवान स्पष्ट संकेत देते हैं कि – “अब तक मैंने जो कहा, वह सांख्य रूप में था; अब तुम इसे योग रूप में सुनो।” साधारण भाषा में कहें तो जैसे कोई गुरु पहले छात्र को विषय का पूरा सिद्धान्त समझाता है, फिर कहता है – “अब इसे Practically कैसे लागू करना है, ध्यान से सुनो।” यही रूपांतरण 2:39 में दिखाई देता है। संस्कृत श्लोक (गीता 2:39): एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु। बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि...
भगवद् गीता अध्याय 1 श्लोक 35
एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन।
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते॥
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हिन्दी अर्थ:
हे मधुसूदन (कृष्ण)! मैं इन अपने संबंधियों को मारना नहीं चाहता, भले ही वे मुझे मार डालें। तीनों लोकों के राज्य के लिए भी मैं इन्हें नहीं मारना चाहता, तो फिर इस पृथ्वी के राज्य के लिए तो और भी नहीं।
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विस्तृत व्याख्या:
इस श्लोक में अर्जुन की करुणा और मोह स्पष्ट झलकती है। वह देखता है कि युद्ध में उसे अपने ही गुरु, बंधु, और मित्रों का वध करना होगा। इसलिए उसका हृदय द्रवित हो जाता है।
वह भगवान श्रीकृष्ण से कहता है —
"हे मधुसूदन! चाहे वे मुझे युद्ध में मार डालें, पर मैं उन्हें मारने की इच्छा नहीं रखता। अगर मुझे तीनों लोकों (स्वर्ग, पृथ्वी, पाताल) का भी राज्य क्यों न मिल जाए, तब भी मैं अपने ही संबंधियों को मारकर यह राज्य प्राप्त नहीं करना चाहता।"
अर्जुन के इस कथन से यह पता चलता है कि उसका मन धर्म और कर्तव्य से भटक चुका है। वह अपने क्षत्रिय धर्म को भूलकर मोह और दया में डूब गया है। जबकि युद्ध धर्म की रक्षा और अधर्म के नाश के लिए था, अर्जुन केवल अपने परिवारजनों के प्रति मोहवश निर्णय नहीं ले पा रहा था।
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भावार्थ:
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन के मोह और करुणा के भाव को सुनते हैं, ताकि आगे वे उसे ज्ञान देकर उसके भ्रम को दूर करें। यहाँ अर्जुन बताता है कि उसे किसी भी मूल्य पर अपने संबंधियों का वध स्वीकार नहीं है — चाहे स्वर्ग मिले या पृथ्वी का राज्य।
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संक्षेप में:
अर्जुन का हृदय करुणा से भर गया है। वह कहता है — “हे कृष्ण! मैं अपने प्रियजनों को नहीं मार सकता, भले ही मुझे तीनों लोकों का राज्य मिल जाए।”
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