भगवद गीता अध्याय 1, श्लोक 36
निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीति: स्याज्जनार्दन ।
पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिन: ॥ 36 ॥
हिंदी अनुवाद
हे जनार्दन! धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हमें क्या सुख मिलेगा?
उन आततायियों (अत्याचारी लोगों) को मारने से तो हम पर पाप ही लगेगा।
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विस्तृत व्याख्या
इस श्लोक में अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण से कह रहे हैं कि —
1. अर्जुन का द्वंद्व (संकट):
अर्जुन कहता है कि – ये जो लोग हमारे सामने युद्धभूमि में हैं, ये भले ही अधर्म कर रहे हों, पर ये हमारे ही रिश्तेदार हैं।
इन्हें मारकर हमें कोई सुख या विजय की प्रसन्नता नहीं मिलेगी, बल्कि मन में पश्चाताप और पापबोध रहेगा।
2. ‘आततायी’ का अर्थ:
संस्कृत में आततायी उन लोगों को कहा गया है जो —
किसी के घर में आग लगाएँ,
किसी को विष दें,
धन या भूमि छीन लें,
किसी की पत्नी का अपमान करें,
बिना कारण किसी की हत्या करें।
कौरवों ने पांडवों के साथ यही सब किया —
उन्होंने लाक्षागृह में उन्हें जलाने की कोशिश की, द्रौपदी का अपमान किया, और उनका राज्य छीन लिया।
फिर भी अर्जुन कहता है कि — “ये मेरे अपने हैं, इन्हें मारना पाप होगा।”
3. भावार्थ (मुख्य संदेश):
अर्जुन इस समय भावनाओं से भर गया है।
उसका मन कर्तव्य (धर्म) और संबंधों (मोह) के बीच फँसा हुआ है।
वह योद्धा होते हुए भी करुणा के कारण युद्ध नहीं करना चाहता।
4. श्रीकृष्ण का दृष्टिकोण (आगे के श्लोकों में):
भगवान कृष्ण बाद में उसे सिखाएँगे कि —
धर्म के लिए किया गया युद्ध पाप नहीं होता।
जब अधर्म बढ़ जाता है, तब अधर्म के नाश के लिए खड़ा होना ही सच्चा कर्तव्य है।
संक्षेप में सारांश:
अर्जुन कहता है —
> “हे कृष्ण! अपने ही भाइयों को मारकर हमें कोई सुख नहीं मिलेगा।
ऐसा करने से तो हम पर पाप ही लगेगा।”
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