भगवद् गीता अध्याय 1, श्लोक 43
भगवद् गीता अध्याय 1, श्लोक 43
दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसङ्करकारकैः।
उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः॥
🔹 शब्दार्थ :
दोषैः — दोषों से, पापों से
एतैः — इनसे
कुलघ्नानाम् — कुल का नाश करने वालों के
वर्णसङ्करकारकैः — वर्णसंकर (जाति-मिश्रण) उत्पन्न करने वाले
उत्साद्यन्ते — नष्ट हो जाते हैं
जातिधर्माः — जाति (समाज) के धर्म
कुलधर्माः — कुल (परिवार) के धर्म
शाश्वताः — सदा से चले आ रहे (स्थायी)
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🔹 श्लोक का सरल हिन्दी अनुवाद:
इन कुल का नाश करने वालों के द्वारा उत्पन्न हुए वर्णसंकर रूप दोषों से जाति के धर्म और कुल के शाश्वत धर्म नष्ट हो जाते हैं।
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🔹 विस्तृत भावार्थ :
अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण से कह रहे हैं कि —
जब कोई युद्ध के कारण अपने ही परिवार (कुल) का विनाश कर देता है, तो उसके परिणाम बहुत भयानक होते हैं। ऐसा करने वालों से उत्पन्न हुए “वर्णसंकर” (मिश्रित जातियाँ) समाज में फैल जाती हैं।
यह वर्णसंकरता धर्म, संस्कृति, और परंपराओं के पतन का कारण बनती है।
पहले जहाँ प्रत्येक व्यक्ति अपने कुलधर्म (परिवार की धार्मिक परंपराओं) और जातिधर्म (सामाजिक कर्तव्यों) का पालन करता था,
अब वे सब लुप्त हो जाते हैं।
जब धर्म नष्ट होता है, तो समाज में अधर्म, अन्याय, अनैतिकता और अव्यवस्था बढ़ जाती है।
अर्जुन इस बात से चिंतित हैं कि यदि युद्ध हुआ और परिवारों का विनाश हुआ, तो समाज में नैतिकता और धर्म की जड़ें ही कमजोर पड़ जाएँगी।
उनके अनुसार, युद्ध से केवल व्यक्ति या राज्य का नुकसान नहीं होता, बल्कि पूरी सामाजिक व्यवस्था का पतन हो जाता है।
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🔹 दार्शनिक अर्थ :
यह श्लोक एक गहरी सामाजिक शिक्षा देता है —
धर्म और परंपरा समाज के संतुलन की रीढ़ हैं।
जब परिवार टूटते हैं, संस्कार मिट जाते हैं, और परंपराएँ भुला दी जाती हैं, तब समाज का नैतिक पतन अनिवार्य हो जाता है।
अर्जुन का यह दृष्टिकोण दिखाता है कि वे केवल योद्धा नहीं हैं, बल्कि समाज की मर्यादाओं को गहराई से समझने वाले व्यक्ति हैं।
भगवान कृष्ण बाद में अर्जुन को यह समझाते हैं कि कभी-कभी धर्म की रक्षा के लिए भी युद्ध आवश्यक होता है, लेकिन यहाँ अर्जुन की मनःस्थिति द्वंद्व और करुणा से भरी है।
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🔹 आधुनिक जीवन से जुड़ाव :
1. संस्कार और पारिवारिक मूल्य जीवन के आधार हैं — इन्हें बनाए रखना समाज के लिए आवश्यक है।
2. धर्म और नैतिकता का पतन सिर्फ व्यक्ति को नहीं, बल्कि पीढ़ियों को प्रभावित करता है।
3. संघर्ष या स्वार्थ में परिवार या समाज की एकता टूटने न दें।
4. नैतिक शिक्षा और परंपराएँ समाज को मजबूत बनाए रखती हैं।
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🔹 निष्कर्ष :
इस श्लोक में अर्जुन समाज के पतन की चिंता प्रकट कर रहे हैं।
वे कहते हैं कि जब धर्मनिष्ठ लोग युद्ध में मर जाएँगे, तब उनके वंशजों में नैतिक और सामाजिक अनुशासन नहीं रहेगा।
फलस्वरूप कुलधर्म और जातिधर्म (समाज की मर्यादाएँ और धर्म) नष्ट हो जाएँगे।
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