भगवद् गीता अध्याय 2 श्लोक 2
भगवद् गीता अध्याय 2 श्लोक 2
श्रीभगवानुवाच —
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन॥
हिन्दी अनुवाद :
भगवान श्रीकृष्ण बोले —
हे अर्जुन! तुझमें यह मोह या कायरता कहाँ से उत्पन्न हुई है, जो इस कठिन समय में प्रकट हुई है? यह न तो श्रेष्ठ (आर्य) पुरुषों के योग्य है, न स्वर्ग प्राप्त करने वाली है, और न ही यश (कीर्ति) देने वाली है l
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शब्दार्थ :
श्रीभगवानुवाच — भगवान श्रीकृष्ण ने कहा
कुतः — कहाँ से, किस कारण से
त्वा — तुझमें
कश्मलम् — मोह, कायरता, दुर्बलता
इदम् — यह
विषमे — कठिन परिस्थिति में, संकट के समय
समुपस्थितम् — उपस्थित हुई
अनार्यजुष्टम् — अनार्य पुरुषों (जो श्रेष्ठ नहीं हैं) का आचरण
अस्वर्ग्यम् — स्वर्ग को न देने वाला
अकीर्तिकरम् — अपकीर्ति (बदनामी) देने वाला
अर्जुन — हे अर्जुन
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भावार्थ :
यह श्लोक उस समय कहा गया जब अर्जुन युद्धभूमि में अपने ही संबंधियों, गुरुजनों और मित्रों को सामने देखकर मोह और दया में पड़ गया था। उसने अपना धनुष नीचे रख दिया और युद्ध करने से इनकार कर दिया।
भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को यह देखकर झकझोरते हैं —
> “हे अर्जुन! यह समय मोह में पड़ने का नहीं है। यह युद्ध धर्म का पालन करने का समय है। तू क्षत्रिय है, और क्षत्रिय का धर्म है — अधर्म के विरुद्ध युद्ध करना। फिर तुझमें यह कमजोरी कहाँ से आ गई?”
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मुख्य बिंदु :
1. “कुतस्त्वा कश्मलमिदं” — भगवान पूछते हैं कि यह मानसिक दुर्बलता अर्जुन में कहाँ से आई।
“कश्मल” का अर्थ है — भ्रम, मोह, कायरता या मानसिक कमजोरी।
2. “विषमे समुपस्थितम्” — यह कमजोरी सबसे अनुपयुक्त समय पर आई है, जब अर्जुन को दृढ़ रहना था।
3. “अनार्यजुष्टम्” — यह आचरण आर्य (श्रेष्ठ, धर्मपरायण) पुरुष के योग्य नहीं है।
“आर्य” शब्द का अर्थ केवल जाति नहीं, बल्कि वह व्यक्ति जो धर्म, सत्य और कर्तव्य के अनुसार जीवन जीता है।
4. “अस्वर्ग्यमकीर्तिकरम्” —
इस प्रकार का व्यवहार न तो स्वर्ग दिलाता है (क्योंकि यह धर्म के विरुद्ध है),
न कीर्ति (यश) लाता है, बल्कि अपयश (बदनामी) देता है।
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संक्षिप्त सार :
👉 भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को डाँटते हुए कहते हैं कि रणभूमि में कायरता और मोह दिखाना उसके लिए शोभा नहीं देता।
👉 ऐसा व्यवहार धर्म, कीर्ति और स्वर्ग — तीनों से वंचित करता है।
👉 यह श्लोक हमें भी प्रेरित करता है कि कठिन समय में अपने कर्तव्य से पीछे नहीं हटना चाहिए
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