भगवद् गीता अध्याय 2 श्लोक 4
भगवद् गीता अध्याय 2 श्लोक 4
अर्जुन उवाच —
कथं भीष्ममहं संख्ये द्रोणं च मधुसूदन।
इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन।।
हिंदी अनुवाद:
अर्जुन ने कहा —
हे मधुसूदन! हे अरिसूदन! मैं युद्धभूमि में भीष्म और द्रोण जैसे पूज्यनीय व्यक्तियों पर बाणों से कैसे प्रहार करूं?
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विस्तार से अर्थ (विवरण):
इस श्लोक में अर्जुन अपनी गहरी दुविधा और करुणा व्यक्त कर रहा है।
वह भगवान श्रीकृष्ण से कहता है कि —
“हे मधुसूदन (मधु दैत्य का वध करने वाले)! हे अरिसूदन (शत्रुओं का नाश करने वाले)! मैं अपने गुरु द्रोणाचार्य और अपने पितामह भीष्म पर, जो मेरे लिए अति पूज्य हैं, बाण कैसे चला सकता हूं? वे मेरे आदरणीय गुरु और वरिष्ठ हैं, इसलिए उनके विरुद्ध युद्ध करना अधर्म समान प्रतीत होता है।”
अर्जुन का हृदय संवेदनाओं और धर्मसंकोच से भरा हुआ है। उसे लगता है कि प्रिय और पूज्य व्यक्तियों पर शस्त्र उठाना पाप होगा।
यह श्लोक अर्जुन के कर्तव्य और भावनाओं के संघर्ष को दर्शाता है — एक ओर क्षत्रिय धर्म, दूसरी ओर पारिवारिक और गुरु के प्रति सम्मान।
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यह श्लोक हमें क्या सिखाता है:
👉 कभी-कभी जीवन में ऐसे निर्णय आते हैं जहाँ कर्तव्य और भावना में टकराव होता है।
👉 सच्चा धर्म समझना कठिन होता है जब हमें अपने प्रियजनों से विरोध करना पड़े।
👉 यह श्लोक हमें सिखाता है कि ऐसे समय में बुद्धि और विवेक से निर्णय लेना चाहिए, न कि केवल भावनाओं में बहकर।
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