भगवद गीता अध्याय 2 श्लोक 7

              भगवद गीता अध्याय 2 श्लोक 7

कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।।
                               गीता 2:7

 🕉️ हिंदी अनुवाद:

मेरी स्वभाव (धर्मबुद्धि) कायरता रूप दोष से ढक गई है और मैं धर्म के विषय में मोहग्रस्त हो गया हूँ। इसलिए हे कृष्ण! मैं आपसे पूछता हूँ कि मेरे लिए क्या निश्चित रूप से श्रेयस्कर (कल्याणकारी) है — कृपया मुझे स्पष्ट रूप से बताइए। अब मैं आपका शिष्य हूँ, आपकी शरण में आया हूँ, कृपया मुझे उपदेश दीजिए।

---------------------------------------------------
💫 विस्तृत व्याख्या:

इस श्लोक में अर्जुन अपनी मानसिक स्थिति को पूरी तरह से प्रकट करता है। युद्धभूमि में खड़े होकर वह समझ जाता है कि उसकी बुद्धि भ्रमित हो गई है — उसे समझ नहीं आ रहा कि धर्म क्या है और अधर्म क्या।

वह कहता है कि “मेरे स्वभाव पर दया और कायरता हावी हो गई है,” यानी अर्जुन अपने क्षत्रिय धर्म (कर्तव्य) से पीछे हटने लगा है। उसे अपने ही प्रियजनों को मारने का विचार व्यथित कर रहा है।

इसलिए, वह श्रीकृष्ण से विनम्र होकर कहता है — “मैं अब आपका शिष्य हूँ।”
यहाँ अर्जुन की विनम्रता और आत्मसमर्पण की भावना दिखाई देती है। पहले तक वह श्रीकृष्ण से मित्र की तरह बातें कर रहा था, लेकिन अब वह गुरु-शिष्य भाव से उनकी शरण में आता है और उनसे मार्गदर्शन माँगता है।

अर्जुन यह स्वीकार करता है कि वह स्वयं निर्णय लेने में असमर्थ है। यह स्थिति हर मनुष्य के जीवन में कभी न कभी आती है, जब भ्रम और दुःख से घिरकर सही मार्ग दिखाई नहीं देता। ऐसे समय में सही मार्गदर्शन पाने के लिए किसी ज्ञानी या गुरु की शरण लेना ही सर्वोत्तम उपाय है।

-------‐-------------------------------------------
🌼 इस श्लोक से शिक्षा:

जब मन भ्रमित हो, तो अहंकार छोड़कर गुरु या ज्ञानी की शरण लेनी चाहिए।

जीवन में जब निर्णय कठिन हो, तब विनम्रता से मार्गदर्शन माँगना श्रेष्ठ है।

आत्मसमर्पण (शरणागति) ही सही ज्ञान और मुक्ति की पहली सीढ़ी है।
---------------------------------------------------


Comments

Popular posts from this blog

भगवद् गीता अध्याय 2 श्लोक 8

📖 भगवद् गीता अध्याय 2, श्लोक 5

श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय 1 श्लोक 1