भगवद् गीता अध्याय 2 श्लोक 21
भगवद् गीता अध्याय 2 श्लोक 21
🌸 श्लोक 2.21 🌸
वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम् ।
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम् ॥
🌼 भावार्थ :
हे अर्जुन! जो मनुष्य इस आत्मा को अविनाशी, नित्य, अजन्मा और अव्यय जानता है,
वह यह कैसे सोच सकता है कि “मैं किसी को मार रहा हूँ” या “कोई मारा जा रहा है”?
वास्तव में, आत्मा न तो किसी को मार सकती है और न ही मारी जा सकती है।
🌿 विस्तृत व्याख्या :
भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में अर्जुन को आत्मा का अमरत्व और वास्तविक स्वरूप समझा रहे हैं।
👉 आत्मा न तो जन्म लेती है, न मरती है।
👉 शरीर बदलने के बाद भी आत्मा वैसी ही रहती है जैसे हम वस्त्र बदलते हैं।
👉 जो व्यक्ति इस सत्य को समझ लेता है, उसके मन से मोह, शोक, भय, और हिंसा की भावना समाप्त हो जाती है।
इसलिए, अर्जुन को श्रीकृष्ण समझा रहे हैं कि जब आत्मा अविनाशी और अमर है, तो शरीर का नाश कोई वास्तविक मृत्यु नहीं है।
इसलिए युद्ध में लड़ने से पाप नहीं होता, क्योंकि तुम किसी आत्मा को नहीं मार रहे, केवल शरीर का परिवर्तन हो रहा है।
✨ मुख्य सन्देश :
आत्मा शाश्वत है — उसे कोई नहीं मार सकता।
जो आत्मा के इस सत्य को जानता है, वह शोक और भय से मुक्त रहता है।
कर्म करते समय परिणाम की आसक्ति नहीं रखनी चाहिए, क्योंकि आत्मा तो कभी नहीं मरती।
🕊️ प्रेरणादायक सार :
"जो आत्मा की नश्वरता को समझ लेता है,
उसके जीवन में कोई भय, दुख या शंका नहीं रहती।" 💫
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