श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय 1 श्लोक 1

 श्लोक

धृतराष्ट्र उवाच ।
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः ।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय ॥ 1


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📝 शब्दार्थ

धृतराष्ट्र उवाच – धृतराष्ट्र ने कहा

धर्म-क्षेत्रे – धर्मभूमि (पवित्र भूमि) में

कुरु-क्षेत्रे – कुरु वंश की भूमि, कुरुक्षेत्र

समवेता – एकत्रित होकर

युयुत्सवः – युद्ध की इच्छा वाले

मामकाः – मेरे पुत्र (कौरव)

पाण्डवाः च एव – और पाण्डु पुत्र (पाण्डव) भी

किम् अकुर्वत – क्या किया

सञ्जय – हे संजय



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🔎 सरल अनुवाद

धृतराष्ट्र ने कहा – हे संजय! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में युद्ध की इच्छा से एकत्रित हुए मेरे पुत्र और पाण्डु पुत्रों ने क्या किया?


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📖 भावार्थ (विस्तार से)

यह गीता का प्रथम श्लोक है। कथा की शुरुआत धृतराष्ट्र के प्रश्न से होती है।

धृतराष्ट्र अंधे थे और साथ ही मोह व लोभ से भी अंधे थे। उनके सौ पुत्र (कौरव) अधर्म के मार्ग पर थे, फिर भी वे अपने पुत्रों के प्रति आसक्त थे।

उन्होंने युद्धभूमि का वर्णन “धर्मक्षेत्र” और “कुरुक्षेत्र” शब्दों से किया। कुरुक्षेत्र केवल भूमि ही नहीं बल्कि धर्म का प्रतीक है।

यहाँ “मामकाः” (मेरे पुत्र) और “पाण्डवाः” (पाण्डु पुत्र) शब्दों में भेदभाव झलकता है। वे अपने पुत्रों और पाण्डवों को कभी एक परिवार का हिस्सा नहीं मानते।

उनका मन यह सोचकर व्याकुल है कि धर्मभूमि में कहीं उनके पुत्र कमजोर न पड़ जाएँ और पाण्डवों की धर्मनिष्ठा प्रभावशाली न हो जाए।

इसलिए वे संजय से पूछते हैं कि “मेरे पुत्र और पाण्डवों ने वहाँ क्या किया?”



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🌸 दार्शनिक महत्व

1. यह श्लोक मानव मन की अंधता और आसक्ति को दर्शाता है। धृतराष्ट्र केवल “मेरा और तुम्हारा” की दृष्टि से देख रहे हैं।


2. कुरुक्षेत्र केवल युद्धभूमि नहीं, बल्कि जीवन का प्रतीक है – जहाँ धर्म और अधर्म आमने-सामने खड़े होते हैं।


3. गीता की कथा इसी संघर्ष से आगे बढ़ती है, और यही श्लोक उसका द्वार है।

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