श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 1 श्लोक 38

              श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 1 श्लोक 38

यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम्॥

                           गीता 1:38
शब्दार्थ 

यद्यपि — यद्यपि, भले ही

एते — ये (कौरव लोग)

न पश्यन्ति — नहीं देखते, नहीं समझते

लोभोपहतचेतसः — लोभ से ग्रस्त चित्त वाले

कुलक्षयकृतं दोषं — कुल के नाश से होने वाला दोष

मित्रद्रोहे च पातकम् — मित्रों से द्रोह करने में पाप



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🪷 भावार्थ 

हे जनार्दन! यद्यपि ये लोग लोभ से अंधे हो चुके हैं और इन्हें कुल के नाश में दोष या मित्रों से द्रोह करने में पाप नहीं दिखता,


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📖 विस्तृत व्याख्या 

इस श्लोक में अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण से कहते हैं कि —
“हे कृष्ण! ये कौरवजन लोभ से अंधे हो चुके हैं। इन्हें अपने स्वार्थ और राज्य के लोभ ने इतना घेर लिया है कि ये यह नहीं देख पा रहे हैं कि अपने ही कुल का विनाश करना कितना बड़ा पाप है। न ही इन्हें यह समझ में आता है कि अपने मित्रों और संबंधियों के साथ युद्ध करना कितना घोर अधर्म है।”

मुख्य विचार:

लोभ (Greed) व्यक्ति की बुद्धि को भ्रष्ट कर देता है।
जब मनुष्य लोभ के अधीन हो जाता है, तो उसे पाप-पुण्य, धर्म-अधर्म की पहचान नहीं रहती।

कुलक्षय (Destruction of family values) —
परिवार या वंश के नाश से न केवल जनों का विनाश होता है, बल्कि धर्म, संस्कार, परंपरा और सामाजिक संतुलन भी बिगड़ जाता है।

मित्रद्रोह (Betrayal of friends) —
अर्जुन कह रहे हैं कि अपने ही रिश्तेदारों, गुरुजनों और मित्रों पर अस्त्र उठाना अधर्म है, परंतु कौरव इस सच्चाई को नहीं देख पा रहे हैं।


अर्जुन का दृष्टिकोण:
अर्जुन के मन में करुणा और धर्म की भावना जाग उठी है। वह सोचते हैं कि यदि ये लोग (कौरव) लोभ के कारण सत्य को नहीं समझ पा रहे हैं, तो हमें तो विवेकपूर्वक सोचकर इस पाप से बचना चाहिए।


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🕉️ आध्यात्मिक संदेश

इस श्लोक से हमें यह शिक्षा मिलती है कि —

> लोभ और स्वार्थ से अंधा हुआ मनुष्य धर्म और अधर्म का भेद नहीं कर पाता।
इसलिए, निर्णय हमेशा शुद्ध बुद्धि और विवेक से लेना चाहिए, न कि लालच या क्रोध से।

इस श्लोक से हमें यह शिक्षा मिलती है कि —

> लोभ और स्वार्थ से अंधा हुआ मनुष्य धर्म और अधर्म का भेद नहीं कर पाता।
इसलिए, निर्णय हमेशा शुद्ध बुद्धि और विवेक से लेना चाहिए, न कि लालच या क्रोध से।

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