अध्याय 2 : साङ्ख्य योग – श्लोक 36
अवाच्यवादांश्च बहून्वदिष्यन्ति तवाहिताः ।
निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम् ॥ २-३६ ॥
उच्चारण : अवाच्यवादान् च बहून् वदिष्यन्ति तव अहिताः, निन्दन्तः तव सामर्थ्यं, ततो दुःखतरं नु किम्।
सरल अनुवाद : हे अर्जुन! जो लोग तुम्हारे हितैषी नहीं हैं, वे बहुत से ऐसे वचन कहेंगे जो कहने योग्य भी नहीं होंगे; वे तुम्हारे सामर्थ्य की निंदा करेंगे। उससे बढ़कर तुम्हारे लिए और क्या दुःखद होगा?
🧿✨ 1. गीता 2:36 – मूल भावार्थ और गहराई से समझें 🌈🩷
श्रीमद्भगवद्गीता का यह श्लोक केवल युद्ध के मैदान में खड़े अर्जुन के लिए नहीं, बल्कि प्रत्येक उस व्यक्ति के लिए है जो जीवन के किसी मोड़ पर कर्तव्य, सम्मान और आत्मसम्मान के बीच उलझ जाता है। इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को एक बहुत गहरी बात समझाते हैं – यदि तुम डर, मोह या भ्रम में आकर अपने धर्म और कर्तव्य को छोड़ दोगे, तो केवल कर्म का नुकसान नहीं होगा, बल्कि तुम्हारा सम्मान, प्रतिष्ठा और वर्षों से कमाया गया यश भी नष्ट हो जाएगा।
भगवान कहते हैं कि तुम्हारे अहितैषी, शत्रु, आलोचक ऐसे-ऐसे वचन कहेंगे जो अवाच्य हैं – अर्थात जिन्हें सभ्य समाज में बोलना ठीक नहीं, वे अपमानजनक गालियाँ, ताने, व्यंग्य और तुम्हारे चरित्र पर प्रश्नचिह्न के रूप में सामने आएँगे। यह केवल बाहरी अपमान नहीं होगा, बल्कि भीतर तक चुभने वाला ऐसा घाव होगा जिसका दर्द शायद जीवन भर बना रहेगा।
यही कारण है कि भगवान अंत में प्रश्न के रूप में कहते हैं – “ततो दुःखतरं नु किम्?” – इससे बड़ा दुख और क्या हो सकता है? अर्थात – आत्मसम्मान पर चोट जीवन के किसी भी बाहरी दुःख से अधिक पीड़ादायक होती है।
🔥🎯 1.1 “अवाच्य वचन” क्या हैं? – शब्दों से होने वाला अदृश्य हमला 💢
“अवाच्यवादान्” का अर्थ है – ऐसे वचन जो कहने योग्य नहीं, यानी जिन्हें बोलना शिष्ट समाज में उचित नहीं माना जाता। ये वे शब्द हैं जिनमें:
- कटु व्यंग्य
- गाली-गलौज
- चरित्र पर आक्षेप
- छुपा हुआ तिरस्कार
- व्यक्ति की “औकात” पर प्रश्नचिह्न
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं – यदि अर्जुन युद्ध से भाग जाता, तो उसके विरोधी उसकी प्रतिभा, उसकी वीरता और उसके अब तक के सारे महान कर्मों को दरकिनार कर, केवल इतना कहते – “देखा! अंत में तो डरपोक ही निकला”, “अर्जुन की सारी वीरता दिखावा थी”, “महारथी कहलाने वाला युद्धभूमि से भाग गया।” ये वचन केवल मज़ाक नहीं, बल्कि किसी योद्धा के आत्मसम्मान पर सीधा प्रहार होते।
💔🧠 1.2 निंदा और अपमान – मन पर गहरा प्रभाव 🌧️
शब्दों से होने वाली चोट दिखाई नहीं देती, परंतु कई बार तलवार की चोट से भी अधिक गहरी होती है। जब कोई व्यक्ति अपने बारे में अपमानजनक बातें सुनता है, खासकर तब जब वो बातें उसके चरित्र, साहस, क्षमता और ईमानदारी पर प्रश्न उठाती हों, तो मन के अंदर:
- हीन भावना (Inferiority Complex)
- गिल्ट (Guilt)
- क्रोध और चिड़चिड़ापन
- अत्यधिक आत्म-विश्लेषण और खुद को गलत समझना
जैसी मानसिक स्थितियाँ जन्म लेती हैं। भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को पहले ही यह दिखा चुके हैं कि यदि तुम कर्तव्य से भागोगे, तो भीतर आत्मग्लानि सताएगी; अब वे दिखा रहे हैं कि बाहर से निंदा और अपमान भी होगा। यानी – अंदर भी बेचैनी, बाहर भी बदनामी। ऐसे में मनुष्य के लिए जीना अत्यंत कठिन हो जाता है।
🌋🎭 1.3 “ततो दुःखतरं नु किम्?” – इससे बड़ा दुख और क्या? 😢
यह भाग श्लोक का अत्यंत मार्मिक है। भगवान प्रश्न के माध्यम से कहते हैं – “हे अर्जुन! जब तुम्हें इस प्रकार निंदा और अपमान सहना पड़ेगा, तब इससे बढ़कर तुम्हारे लिए और कौन-सा दुःख होगा?” यह प्रश्न वास्तव में जागृति का वाक्य है, जो अर्जुन के भीतर सोए हुए वीर, क्षत्रिय और धर्मरक्षक को जगा रहा है।
जो व्यक्ति अपने जीवन में सम्मान, सत्यनिष्ठा और कर्तव्यनिष्ठा को महत्व देता है, उसके लिए सबसे बड़ा दुःख यह होता है कि लोग उसके बारे में गलत सोचें, उसे कायर, ग़ैर-जिम्मेदार या धोखेबाज समझें। भगवान इसी संवेदनशील बिंदु को छूकर अर्जुन को समझाते हैं – यदि तुम आज भागते हो, तो तुम्हारा अंदर का अर्जुन भी मरेगा और बाहर समाज के लिए भी तुम सम्मान खो दोगे।
📜🌟 2. संदर्भ: अर्जुन की मानसिक स्थिति और श्रीकृष्ण की रणनीति 🧠🛡️
अर्जुन उस समय अत्यधिक भावुक स्थिति में है। उसकी दृष्टि युद्ध के धर्म पर नहीं, बल्कि सामने खड़े अपने भाइयों, गुरुजनों और संबंधियों पर है। वह सोच रहा है – “ये मेरे ही लोग हैं, इन्हें मारकर मैं कैसे सुखी रहूँगा?” उसका मन करुणा, मोह और भ्रम से भर गया है। उसने गांडीव धनुष रख दिया और युद्ध करने से इंकार कर दिया।
श्रीकृष्ण इस मानसिक अवस्था को पहचानते हैं और धीरे-धीरे उसे तीन स्तरों पर जगाते हैं:
- तत्त्व ज्ञान से – आत्मा और शरीर का भेद समझाकर।
- धर्म और कर्तव्य से – क्षत्रिय धर्म और न्याय की रक्षा बताकर।
- व्यावहारिक सच्चाई से – समाज, यश, निंदा और सम्मान के परिणाम दिखाकर (जैसे इस श्लोक में)।
🧩💡 2.1 भावुकता बनाम धर्म – गलत समय की करुणा 😔⚖️
करुणा अच्छी है, लेकिन हर करुणा सही नहीं होती। यदि कोई अपराधी दंड से बचने के लिए “दया” की बात करे और न्याय करने वाला व्यक्ति करुणा के नाम पर उसे छोड़ दे, तो यह करुणा अधर्म बन जाती है। अर्जुन के साथ भी यही हो रहा था – उसकी करुणा धर्म के लिए नहीं, अपने संबंधों के लिए अधिक थी।
श्रीकृष्ण उसे समझाते हैं कि – यह युद्ध लालच, बदले या व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए नहीं, बल्कि धर्म की स्थापना के लिए है। यदि तुम यहाँ पीछे हटोगे, तो केवल अपने कर्तव्य से नहीं, बल्कि संपूर्ण समाज के न्याय से भी भागोगे।
🛡️🎖️ 2.2 क्षत्रिय धर्म और वीरता की रक्षा – इज्जत का सवाल 🏹
अर्जुन केवल एक व्यक्ति नहीं, बल्कि एक क्षत्रिय, सेनापति और आदर्श योद्धा है। उसके एक निर्णय से लाखों सैनिकों का मनोबल तय होगा। यदि सेनापति ही युद्धभूमि में पीछे हट जाए, तो सेना की हिम्मत टूट जाती है, शत्रु का साहस बढ़ जाता है और इतिहास में वह सेनापति कायर के रूप में दर्ज हो जाता है।
इसीलिए श्रीकृष्ण क्षत्रिय धर्म की बात करते हुए कहते हैं – यदि तू युद्ध से भागेगा, तो लोग केवल यह नहीं कहेंगे कि “अर्जुन ने युद्ध नहीं किया”, बल्कि वे कहेंगे – “अर्जुन लायक ही नहीं था, वह केवल नाम का वीर था।” यह आज के सैनिक, पुलिस, नेता, शिक्षक, डॉक्टर, जज, और हर जिम्मेदार व्यक्ति पर लागू होता है – यदि वे कर्तव्य से भागें, तो केवल व्यक्ति नहीं, पूरे सिस्टम का सम्मान गिर जाता है।
📚🧠 3. शब्दार्थ, व्याकरण और दार्शनिक अर्थ की परत-दर-परत व्याख्या 🔍
अब इस श्लोक के मुख्य शब्दों को एक-एक करके समझते हैं, ताकि इसका दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक और व्यवहारिक अर्थ और स्पष्ट हो सके।
🧾✨ 3.1 “तव-अहिताः” – जो तुम्हारे हित के नहीं हैं 👥
“तव-अहिताः” का अर्थ है – जो तुम्हारा भला नहीं चाहते, जो तुम्हारे पक्ष में नहीं, बल्कि तुम्हारे विरुद्ध हैं। ये लोग:
- तुम्हारी सफलता से जलते हैं,
- तुम्हारे गिरने या हारने का अवसर तलाशते हैं,
- तुम्हारी छोटी गलती को भी बड़ा बनाकर फैलाते हैं।
ऐसे लोग यदि तुम्हें कर्तव्य छोड़ते, भागते या कमजोर देखते हैं, तो उन्हें तुम्हारे खिलाफ स्थायी हथियार मिल जाता है। भगवान कहते हैं – यदि तुम युद्ध से भागोगे, तो ये लोग तुम्हारे बारे में ऐसी बातें कहेंगे कि तुम्हारे लिए उनसे बड़ा दुख और कुछ नहीं होगा।
🎯💥 3.2 “सामर्थ्य की निंदा” – योग्यता पर प्रश्नचिह्न ✂️
यहाँ पर नया शब्द आता है – “सामर्थ्य”। सामर्थ्य केवल शारीरिक शक्ति नहीं, बल्कि:
- मानसिक दृढ़ता,
- नैतिक बल,
- निर्णय लेने की क्षमता,
- आध्यात्मिक परिपक्वता,
- प्रतिभा और कौशल का समुच्चय
जब कोई व्यक्ति अपने सामर्थ्य के अनुरूप कर्तव्य करने से पीछे हटता है, तो लोग उसके प्रयास को नहीं, बल्कि उसके कुल सामर्थ्य को ही संदेह की दृष्टि से देखने लगते हैं। यही कारण है कि भगवान कहते हैं – वे तुम्हारे सामर्थ्य की निंदा करेंगे, यानी यह कहेंगे –
- “अर्जुन उतना महान योद्धा था ही नहीं।”
- “उसकी ख्याति बढ़ा-चढ़ाकर बनाई गई थी।”
आज के समय में यह बात हर क्षेत्र में लागू होती है – यदि कोई डॉक्टर, शिक्षक, अधिकारी, नेता या गुरु सही समय पर सही कर्तव्य नहीं निभाता, तो लोग उसकी पूरी योग्यता और पहचान पर ही सवाल उठाते हैं।
🎓📖 4. विद्यार्थी, नौकरीपेशा और गृहस्थ जीवन में गीता 2:36 की सीख 🧭
यह श्लोक केवल कुरुक्षेत्र की धूल तक सीमित नहीं है; यह आज के स्कूल-कॉलेज, ऑफिस, व्यापार, परिवार और सोशल लाइफ पर भी उतना ही लागू होता है। कुछ प्रमुख परिस्थितियाँ देखें:
📚🧑🎓 4.1 छात्रों के लिए – परीक्षा छोड़ना, लक्ष्य से भागना 🎯
बहुत से छात्र डर, आलस या असफलता की आशंका के कारण:
- परीक्षा देने से पीछे हट जाते हैं,
- मध्य में पढ़ाई छोड़ देते हैं,
- कठिन विषयों से भागते हैं,
- प्रतियोगी परीक्षाओं में प्रयास ही नहीं करते।
ऐसी स्थिति में केवल मार्कशीट का नुकसान नहीं होता, बल्कि:
- परिवार की नजर में उनकी इमेज गिरती है,
- दोस्त मज़ाक बनाते हैं,
- वे स्वयं अपने अंदर यह धारणा बना लेते हैं कि “मैं कर ही नहीं सकता।”
यही “सामर्थ्य की निंदा” है – बाहरी भी और भीतरी भी। गीता 2:36 उन्हें यह संदेश देती है – डर के कारण भागना सबसे बड़ा अपमान है; कोशिश करके हार जाना भी उतना कष्टदायक नहीं जितना बिना लड़े मैदान छोड़ देना।
💼🚀 4.2 जॉब और बिज़नेस में – जिम्मेदारी से भागना 🙅♂️
नौकरी और व्यापार में भी कई बार ऐसे मौके आते हैं जहाँ:
- कठिन निर्णय लेने पड़ते हैं,
- सत्य के पक्ष में खड़ा होना होता है,
- टीम का नेतृत्व करना होता है,
- जोखिम लेकर नए काम की शुरुआत करनी होती है।
यदि व्यक्ति हर बार टालमटोल, डर या बहानेबाज़ी से काम चलता है, तो धीरे-धीरे:
- मैनेजमेंट उस पर भरोसा नहीं करता,
- टीम उसे कमजोर मानने लगती है,
- उसकी “इमेज” केवल एक साधारण, औसत या डरपोक व्यक्ति की बन जाती है।
यह वही है जिसका संकेत श्लोक में दिया गया है – “निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं” – तुम्हारी योग्यता, क्षमता और काबिलियत पर ही लोग प्रश्न उठाएंगे।
🏠🤝 4.3 परिवार और समाज में – सही बात पर चुप रहना 🕊️
परिवार या समाज में जब कोई गलत काम होता है, तब जो व्यक्ति सत्य जानता है, परंतु डर, स्वार्थ या संबंधों के मोह के कारण चुप रह जाता है, समय बीतने के बाद वही व्यक्ति आत्मग्लानि से भर जाता है। लोग भी बाद में यही कहते हैं – “जब उसे सब पता था, तब उसने बोला क्यों नहीं?” “ये तो सही समय पर कुछ करता ही नहीं।” इस तरह व्यक्ति की विश्वसनीयता खत्म हो जाती है।
गीता का यह श्लोक ऐसे सभी लोगों के लिए है – सही समय पर सही पक्ष में खड़ा होना ही सच्चा धर्म है; कर्तव्य से भागना, भावुकता या डर से चुप रहना अपमानजनक निंदा को आमंत्रण देना है।
🕉️💫 5. आत्मा की अमरता, कर्म और सम्मान – गीता 2:36 का गहरा आध्यात्मिक संदेश 🌺
अध्याय 2 के पूर्ववर्ती श्लोकों में श्रीकृष्ण ने आत्मा की अमरता, शरीर की नश्वरता, और कर्मयोग का आधार स्थापित कर दिया है। अब वे अर्जुन को बता रहे हैं कि:
- आत्मा न जन्म लेती है, न मरती है,
- शरीर बदलते रहते हैं,
- कर्म करना हमारा धर्म है,
- सम्मान केवल परिणाम से नहीं, बल्कि कर्मनिष्ठा से मिलता है।
🌱♾️ 5.1 मृत्यु का भय बनाम सम्मान का भय ⚰️🏵️
कुरुक्षेत्र में अर्जुन को मृत्यु का भी भय था और अपने अपनों की मृत्यु का भी। श्रीकृष्ण पहले उसे समझाते हैं कि मृत्यु तो केवल शरीर का परिवर्तन है। लेकिन अब वे उसे यह भी बताते हैं कि – यदि तुम धर्मपूर्वक कर्म नहीं करोगे, तो तुम्हारा सम्मान मर जाएगा, जो किसी एक जन्म तक सीमित नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों की स्मृति में तुम्हारा स्थान तय करेगा।
इसीलिए कहा जाता है –
शरीर एक दिन नष्ट हो जाएगा,
परंतु कर्म और चरित्र की सुगंध युगों-युगों तक बनी रहती है।
🌟🧭 5.2 कर्मयोग की कसौटी – प्रयास, न कि पलायन 🛤️
गीता के अनुसार सच्चा योगी वह नहीं जो जिम्मेदारियों से भाग जाए, बल्कि वह है जो:
- कर्तव्य का पालन निष्काम भाव से करे,
- फल की चिंता से मुक्त होकर सही कर्म करे,
- भावुकता, भय और मोह के जाल से ऊपर उठकर धर्म के अनुसार निर्णय ले।
यदि अर्जुन युद्ध से भाग जाता, तो यह कर्मयोग का नहीं, पलायन का उदाहरण बनता। तभी भगवान उसे बता रहे हैं कि – तुम्हारे लिए असली अपमान मृत्यु नहीं, कर्तव्य से पलायन है।
💬 6. अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQ) – गीता 2:36 से संबंधित
प्रश्न 1: गीता 2:36 का मुख्य संदेश क्या है?
उत्तर: गीता 2:36 का मुख्य संदेश यह है कि यदि व्यक्ति अपने धर्म और कर्तव्य से डर, मोह या भ्रम के कारण पीछे हटता है, तो उसके शत्रु और अहितैषी उसकी क्षमता, साहस और सम्मान की निंदा करेंगे। यह बाहरी बदनामी और भीतरी आत्मग्लानि, दोनों मिलकर उसके लिए सबसे बड़ा दुःख बन जाते हैं।
प्रश्न 2: “अवाच्य वचन” से क्या तात्पर्य है?
उत्तर: “अवाच्य वचन” वे शब्द हैं जिन्हें सभ्य और शिष्ट समाज में बोलना उचित नहीं माना जाता। इसमें गाली-गलौज, अपमानजनक टिप्पणियाँ, चरित्र पर आक्षेप और व्यक्ति की “औकात” पर चोट करने वाले वाक्य शामिल हैं। भगवान चेतावनी देते हैं कि कर्तव्य से भागने पर अर्जुन को ऐसे ही अवाच्य वचन सुनने पड़ सकते हैं।
प्रश्न 3: क्या यह श्लोक केवल योद्धाओं के लिए है या आम जीवन में भी लागू होता है?
उत्तर: यह श्लोक हर उस व्यक्ति पर लागू होता है जो किसी न किसी रूप में जिम्मेदारी निभा रहा है – चाहे वह छात्र हो, कर्मचारी, व्यापारी, माता-पिता, शिक्षक, नेता या कोई भी। जब भी हम कर्तव्य से भागते हैं, लोग हमारी क्षमता पर सवाल उठाते हैं और हमारा सम्मान घट जाता है। इसलिए गीता 2:36 हर इंसान के लिए मार्गदर्शक है।
प्रश्न 4: आत्मसम्मान और अहंकार में क्या अंतर है, जैसा इस श्लोक से समझ आता है?
उत्तर: अहंकार वह है जिसमें व्यक्ति स्वयं को दूसरों से बड़ा और श्रेष्ठ समझता है; जबकि आत्मसम्मान वह है जिसमें व्यक्ति अपने कर्तव्य, सत्यनिष्ठा, और चरित्र का सम्मान करता है। गीता 2:36 में भगवान अहंकार की नहीं, बल्कि स्वस्थ आत्मसम्मान की रक्षा की बात करते हैं – यानी ऐसा जीवन जीना जिससे स्वयं भी अपने ऊपर गर्व हो और समाज भी सम्मान दे।
प्रश्न 5: क्या हमें हमेशा लोगों की निंदा की चिंता करनी चाहिए?
उत्तर: गीता का संदेश यह नहीं कि हमें हर बात पर लोगों की राय के अनुसार चलना चाहिए। मूल शिक्षा यह है कि धर्म और कर्तव्य से भागने पर जो निंदा होती है, वह वास्तव में उचित होती है और उससे बचना चाहिए। यदि हम सही काम करते हुए निंदा झेलते हैं, तो वह उतनी महत्वपूर्ण नहीं; लेकिन यदि हम पलायन और डर के कारण कर्तव्य छोड़ दें, तो ऐसी निंदा हमारे चरित्र और सामर्थ्य पर प्रश्नचिह्न बन जाती है।
यह लेख केवल शैक्षणिक और आध्यात्मिक उद्देश्य के लिए लिखा गया है। यह किसी भी प्रकार की चिकित्सीय, कानूनी या ज्योतिषीय सलाह का विकल्प नहीं है। भगवद्गीता का अध्ययन आत्मविकास हेतु है, किसी प्रकार की अंधश्रद्धा फैलाने हेतु नहीं।
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