गीता श्लोक 2.40 – कर्मयोग का अद्भुत वचन: नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति
भगवद्गीता का अध्याय 2 (सांख्य योग) कर्मयोग की नींव रखता है। श्लोक 2.40 उन लोगों के लिए विशेष प्रेरणा देता है जो आध्यात्मिक मार्ग पर चलना तो चाहते हैं, पर उन्हें डर, असफलता और भविष्य की चिंता रोक देती है। इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को भरोसा दिलाते हैं कि इस मार्ग में किया गया कोई भी छोटा सा प्रयास भी कभी व्यर्थ नहीं जाता।
नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्॥ २.४०॥
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| श्रीकृष्ण सिखाते हैं: धर्म के मार्ग पर किया गया हर प्रयास सुरक्षित रहता है। |
यह श्लोक हमें यह सिखाता है कि ईमानदारी से किया गया सत्कर्म, कर्मयोग और आध्यात्मिक साधना कभी नष्ट नहीं होती। थोड़ी सी भी आध्यात्मिक प्रगति हमें बड़े-बड़े डर, मानसिक तनाव और जीवन के संकटों से बचाने में समर्थ होती है।
गीता 2.40 का सरल हिंदी अनुवाद और सामान्य अर्थ
सरल हिंदी अनुवाद:
इस मार्ग (कर्मयोग और आध्यात्मिक साधना) में किए गए प्रयास का कभी नाश नहीं होता और इसका कोई विपरीत
या बुरा फल नहीं होता। इस धर्म (कर्मयोग/साधना) का थोड़ा सा पालन भी मनुष्य को बहुत बड़े भय से बचा लेता है।
साधारण भाषा में अर्थ:
अगर आप भगवान में श्रद्धा रखते हुए, निष्काम भाव से, ईमानदारी के साथ कर्म करते हैं तो इसका एक-एक
क्षण, एक-एक संकल्प, एक-एक प्रयास आपके जीवन में सकारात्मक ऊर्जा के रूप में जुड़ जाता है। कभी भी यह
नहीं होता कि आपने जो किया वह बेकार चला गया। यही बात कर्मयोग की
सबसे बड़ी ताकत है।
“नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति” का क्या संकेत है?
शब्द नेह का अर्थ है – इस मार्ग में, यहाँ। अभिक्रम का अर्थ है – आरम्भ किया हुआ प्रयास या साधना। नाशः का अर्थ – नष्ट होना। इस प्रकार “नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति” का अर्थ हुआ – इस मार्ग में आरम्भ किया गया भी प्रयास कभी नष्ट नहीं होता।
- आध्यात्मिक जीवन में कोई भी छोटा कदम बेकार नहीं जाता।
- अगर आप बीच में रुक भी जाएँ, तब भी पहले किए गए प्रयास का पुण्य फल बना रहता है।
- भगवान हमारे हर सच्चे प्रयास को गिनते हैं, चाहे दुनिया पहचान दे या न दे।
गीता 2.40 – शब्दार्थ और महत्वपूर्ण शब्दों की व्याख्या
गीता 2.40 को गहराई से समझने के लिए इसके मुख्य शब्दों को जानना आवश्यक है:
प्रमुख शब्द और उनका संक्षिप्त अर्थ
- नेह – यहाँ, इस मार्ग में (कर्मयोग/आध्यात्मिक साधना के संदर्भ में)।
- अभिक्रम – आरम्भ किया गया प्रयास, शुरू किया गया साधन, प्रारम्भिक कदम।
- नाशः – नष्ट होना, समाप्त हो जाना।
- प्रत्यवाय – विपरीत फल, नकारात्मक परिणाम, नुकसान।
- धर्म – यहाँ कर्मयोग, अपने कर्तव्य का निष्काम पालन, आध्यात्मिक जीवन का पथ।
- स्वल्पम् – थोड़ी सी भी मात्रा, थोड़े से भी।
- महतो भयात् – बहुत बड़े भय से, जीवन के गंभीर संकटों से।
इन शब्दों से स्पष्ट है कि यह श्लोक हमें निडर होकर धर्मानुसार कर्म करने की प्रेरणा देता है। यहाँ डर केवल युद्ध का नहीं, बल्कि असफलता का डर, समाज का डर, भविष्य का डर और पाप-बोध का डर भी है।
श्लोक का संदर्भ: अर्जुन का भ्रम और श्रीकृष्ण की प्रेरणा
कुरुक्षेत्र के युद्धभूमि में अर्जुन मोह और दुविधा से भर गया। उसे लगा कि युद्ध करना अधर्म है, अपने ही संबंधियों, गुरुओं और मित्रों पर अस्त्र उठाना पाप होगा। ऐसे समय पर भगवान श्रीकृष्ण उसे कर्मयोग का उपदेश देते हैं। वे बताते हैं कि अगर कोई अपने कर्तव्य को निष्काम भाव से, भगवान में श्रद्धा रखकर करता है, तो उसके कर्मों का फल सदैव कल्याणकारी होता है।
श्लोक 2.40 इसी संदर्भ में आश्वासन की तरह आता है – “अर्जुन! डर मत, इस मार्ग में तुम्हारा कोई नुकसान नहीं होगा। थोड़ा भी प्रयास तुम्हें बड़े भय से बचा लेगा।”
गीता 2.40 की गहन व्याख्या: कर्मयोग में असफलता नाम की कोई चीज नहीं
1. आध्यात्मिक बैंक अकाउंट – पुण्य कभी जीरो नहीं होता
आप कल्पना कीजिए कि आपका एक आध्यात्मिक बैंक अकाउंट है। जब भी आप –
- सच्चे मन से प्रार्थना करते हैं,
- ईमानदारी से अपना कर्तव्य निभाते हैं,
- किसी की मदद करते हैं,
- अपने स्वार्थ से ऊपर उठकर काम करते हैं,
– तब आपके इस अकाउंट में पुण्य जमा होता जाता है। गीता 2.40 कहती है कि यह जमा हुआ पुण्य कभी नष्ट नहीं होता। अगर आप बीच में रुक जाएँ, तब भी पहले की कमाई सुरक्षित रहती है।
2. क्यों नहीं मिलता “प्रत्यवाय” – नकारात्मक फल?
साधारण कर्मों में गलती होने पर नकारात्मक फल भी मिल सकता है, लेकिन जब आप निष्काम भाव से, भगवान को समर्पित होकर कर्म करते हैं, तब आपके अंदर का दृष्टिकोण बदल जाता है। आप –
- लोभ, क्रोध, ईर्ष्या के वश में आकर नहीं,
- बल्कि शांति, संतुलन और समर्पण के भाव से काम करते हैं।
इसलिए ऐसे कर्मों से प्रत्यवाय यानी बुरा फल उत्पन्न नहीं होता। यदि परिणाम आपकी इच्छा के अनुसार न भी आए, तब भी उसका आध्यात्मिक लाभ आपको मिलता ही है – मन की शांति, अनुभव, धैर्य, और भगवान पर भरोसा।
3. “स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य” – थोड़ा सा भी क्यों इतना शक्तिशाली है?
साधारण जीवन में हम सोचते हैं कि बड़ा काम ही बड़ा परिणाम देगा। लेकिन गीता की दृष्टि अलग है। यहाँ भाव और दिशा अधिक महत्वपूर्ण है, केवल मात्रा नहीं। थोड़ी सी भी सच्ची साधना, थोड़ी सी भी भक्ति और थोड़े समय के लिए भी किया गया निष्काम कर्म, व्यक्ति की मानसिक दिशा बदल देता है।
उदाहरण के लिए:
- अगर आप रोज 10 मिनट भी गीता पढ़ते हैं, आपका सोचने का नजरिया धीरे-धीरे बदलने लगता है।
- अगर आप हर दिन किसी एक व्यक्ति को सच्चे दिल से मदद करते हैं, तो आपके अंदर करुणा और संतोष बढ़ने लगता है।
यही छोटी-छोटी चीजें मिलकर आपको “महतो भयात्” अर्थात् बड़े डर से बचाती हैं – जैसे मृत्यु का डर, असफलता का डर, अपमान का डर, भविष्य का डर आदि।
गीता 2.40 और आधुनिक जीवन: स्टूडेंट, नौकरी, बिज़नेस और परिवार में प्रयोग
1. स्टूडेंट के लिए संदेश – पढ़ाई कभी बेकार नहीं जाती
बहुत से विद्यार्थी यह सोचकर परेशान हो जाते हैं कि “इतना पढ़कर भी अगर अच्छे नंबर न आए तो क्या फायदा?” गीता 2.40 कहती है – अगर आप ईमानदारी से पढ़ाई कर रहे हैं, मेहनत कर रहे हैं, अपना कर्तव्य निभा रहे हैं, तो यह कभी बेकार नहीं जाएगा।
- आपकी कंसंट्रेशन बढ़ेगी।
- आपकी सोचने की क्षमता मजबूत होगी।
- आपमें डिसिप्लिन विकसित होगा।
- ये गुण जीवन भर साथ रहेंगे, भले ही किसी एक एग्जाम का रिज़ल्ट जैसा भी हो।
इस तरह यह श्लोक स्टूडेंट को “डरो मत, कर्म करते रहो” का संदेश देता है।
2. नौकरीपेशा लोगों के लिए – ईमानदारी का हर पल जुड़ता है
नौकरी में कई बार लगता है कि जो लोग शॉर्टकट लेते हैं, चालाकी करते हैं, वे जल्दी सफल हो जाते हैं, जबकि ईमानदार व्यक्ति पीछे रह जाता है। गीता 2.40 हमें यह भरोसा देती है कि धर्म के मार्ग पर चलकर किया गया मेहनती और निष्काम कर्म कभी व्यर्थ नहीं जाता।
आप ऑफिस में:
- अपना काम समय पर और पूरी निष्ठा से करते हैं,
- किसी की हानि किए बिना आगे बढ़ते हैं,
- कंपनी के नियमों का पालन करते हैं,
– तो यह सब आपके चरित्र और आंतरिक मूल्य को ऊँचा उठाता है। अवसर भले तुरंत न दिखें, पर लंबे समय में ऐसे ही लोग भरोसेमंद बनते हैं और उनके जीवन में स्थिरता आती है।
3. बिज़नेसमैन के लिए – नैतिक व्यापार ही सच्ची सफलता
व्यापार में अक्सर लाभ के लिए नैतिकता की बलि दी जाती है। पर गीता के अनुसार: अधर्म से प्राप्त लाभ भी अंततः भय, तनाव और असुरक्षा का कारण बनता है। जबकि धर्म के साथ कमाया हुआ धन शांति देता है।
जब आप:
- कस्टमर के साथ ईमानदारी से डील करते हैं,
- क्वालिटी के साथ समझौता नहीं करते,
- विनम्रता और सेवा-भाव से काम करते हैं,
– तब आपको जो प्रतिष्ठा, भरोसा और आशीर्वाद मिलता है, वह “महतो भयात्” से बचाता है। व्यापार में उतार-चढ़ाव तो आएँगे, पर अंदर से आप मजबूत बने रहते हैं।
आध्यात्मिक दृष्टि से गीता 2.40 – जन्म-जन्मांतर तक साथ चलने वाला पुण्य
1. आध्यात्मिक प्रगति कभी रीसेट नहीं होती
गीता के अन्य अध्यायों में भगवान श्रीकृष्ण यह भी बताते हैं कि इस जीवन में की गई आध्यात्मिक प्रगति अगले जन्म में भी जारी रहती है। यानी यदि आप –
- भगवान के नाम का जप करते हैं,
- धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन करते हैं,
- सत्संग में जाते हैं,
- निष्काम भावना से सेवा करते हैं,
– तो यह साधना मृत्यु के साथ खत्म नहीं होती, बल्कि आगे के जीवन में भी उसका प्रभाव रहता है। यही बात “नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति” को जन्म-जन्मांतर की दृष्टि से और गहरा बना देती है।
2. “महतो भयात्” – मृत्यु और असफलता के डर से मुक्ति
मनुष्य के जीवन में सबसे बड़ा भय है – मृत्यु का भय और उसके बाद दूसरा बड़ा डर – असफलता का भय। गीता 2.40 कहती है कि आध्यात्मिक दृष्टि विकसित होते ही व्यक्ति समझ जाता है कि:
- आत्मा अविनाशी है, केवल शरीर नष्ट होता है।
- सच्चा लाभ केवल आंतरिक शांति और भगवत प्रीति है।
- असफलता भी एक सीख और आगे बढ़ने का मौका है।
जब यह समझ दृढ़ हो जाती है, तो मनुष्य बड़े-बड़े भय से स्वतः मुक्त होने लगता है। यही है – “स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्” – इस धर्म का थोड़ा सा भी आचरण महान भय से रक्षा कर देता है।
गीता 2.40 को जीवन में उतारने के लिए सरल प्रैक्टिकल स्टेप्स
1. रोज़ 5–10 मिनट गीता या किसी भी आध्यात्मिक ग्रंथ का अध्ययन
आप चाहे कितने भी व्यस्त हों, नियमितता ही आध्यात्मिक प्रगति की कुंजी है। रोज़ कुछ ही मिनट शांत मन से गीता का एक श्लोक पढ़ना और उस पर विचार करना, “स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य” का पालन है।
2. हर काम से पहले छोटा सा संकल्प
किसी भी काम की शुरुआत से पहले मन में यह संकल्प करें – “हे भगवान! यह काम मैं आपकी सेवा समझकर, निष्काम भाव से, ईमानदारी के साथ कर रहा हूँ। इसके परिणाम को भी मैं आपको ही समर्पित करता हूँ।” यह छोटा सा भाव आपके कर्म को कर्मयोग में बदल देता है।
3. दूसरों की मदद को अपना दैनिक अभ्यास बनाना
प्रतिदिन कम से कम एक व्यक्ति को सच्चे मन से मदद करने का निश्चय करें – चाहे वह आर्थिक सहायता हो, ज्ञान बांटना हो, समय देना हो, किसी की बात धैर्य से सुनना हो – यह सब धर्म और निष्काम सेवा का हिस्सा है।
4. परिणाम की चिंता कम, प्रयास की गुणवत्ता पर अधिक ध्यान
गीता 2.40 और 2.47 दोनों मिलकर सिखाते हैं कि हमारा अधिकार केवल कर्म पर है, परिणाम पर नहीं। इसलिए हर कार्य में अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास दीजिए और परिणाम को भगवान पर छोड़ दीजिए। यही दृष्टि भय से मुक्त करती है।
5. डर आए तो इस श्लोक को याद करें
जब भी जीवन में कोई बड़ा निर्णय लेना हो और मन डर से भर जाए, तो मन ही मन इस श्लोक को दोहराएँ – “नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते, स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्।” यह स्मरण आपको भीतर से शक्तिशाली और स्थिर करेगा।
गीता 2.40 का सारांश – डर छोड़ो, धर्मयुक्त कर्म करते रहो
गीता 2.40 हमें यह अमूल्य संदेश देती है कि धर्म के मार्ग पर, कर्मयोग के पथ पर किया गया कोई भी प्रयास कभी व्यर्थ नहीं जाता। इस मार्ग में:
- न तो प्रयास का नाश है,
- न ही किसी प्रकार का नकारात्मक परिणाम है,
- और थोड़ी सी भी साधना हमें बड़े-बड़े भय से बचाने में समर्थ है।
इसलिए:
- अपने कर्तव्य से पीछे मत हटिए,
- सच्चाई, ईमानदारी और भगवान पर भरोसा रखिए,
- और निडर होकर कर्मयोगी जीवन जीने की शुरुआत कीजिए।
यही गीता 2.40 का सच्चा संदेश है – डर मत, बस धर्मयुक्त कर्म करते रहो; कोई भी अच्छा प्रयास कभी व्यर्थ नहीं जाता।
गीता 2.40 से जुड़े महत्वपूर्ण प्रश्न (FAQ)
गीता 2.40 में “नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति” का क्या अर्थ है?
इसका अर्थ है कि इस आध्यात्मिक और कर्मयोग के मार्ग में किया गया कोई भी प्रयास कभी नष्ट नहीं होता। अगर आप थोड़ी देर भी सच्चे दिल से साधना, भक्ति या निष्काम कर्म करते हैं, तो उसका फल हमेशा आपके साथ रहता है।
“प्रत्यवायो न विद्यते” से भगवान क्या समझाना चाहते हैं?
इस वाक्य का मतलब है कि इस धर्म (कर्मयोग/आध्यात्मिक साधना) का कोई नकारात्मक फल नहीं होता। यानी यदि परिणाम आपकी अपेक्षा के अनुसार न भी आए, तो भी आपके किए हुए निष्काम कर्म से नुकसान नहीं होगा, बल्कि आंतरिक लाभ ही होगा।
क्या थोड़ी सी साधना भी बड़े भय से बचा सकती है?
हाँ, गीता 2.40 के अनुसार “स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्” – इस धर्म का थोड़ा सा भी अभ्यास व्यक्ति को बड़े-बड़े भय, जैसे मृत्यु का डर, असफलता का डर और भविष्य की चिंता से बचाने में सहायक होता है।
गीता 2.40 को रोज़मर्रा की जिंदगी में कैसे लागू करें?
आप हर काम से पहले छोटा सा संकल्प लें कि यह कार्य भगवान को समर्पित है, ईमानदारी से अपना कर्तव्य निभाएँ, परिणाम की चिंता कम और प्रयास की गुणवत्ता पर अधिक ध्यान दें, प्रतिदिन कुछ समय आध्यात्मिक अध्ययन या जप में दें – यही गीता 2.40 को व्यवहार में उतारना है।
क्या यह श्लोक केवल साधुओं या सन्यासियों के लिए है?
नहीं, यह श्लोक हर उस व्यक्ति के लिए है जो अपने जीवन में धर्मयुक्त, ईमानदार और निष्काम दृष्टि से कर्म करना चाहता है – चाहे वह स्टूडेंट हो, गृहस्थ हो, जॉब में हो या बिज़नेस में। कर्मयोग सबके लिए है, केवल त्यागी जीवन वालों के लिए नहीं।
Frequently Asked Questions (Gita 2:40)
Q1: What does “no effort is ever wasted” mean?A1: It means actions done sincerely and without selfish desire contribute to personal growth and inner stability, even if external results are delayed or unseen.
Q2: Does this verse require religious belief to apply?A2: No — the verse describes a practical psychology: purposeful, ethical effort improves skills, habits and mental resilience, which is useful for anyone regardless of faith.
Q3: How can I apply this idea in daily work?A3: Focus on consistent small practices—daily learning, honest effort, mindful breaks—and detach from immediate outcomes; over time these habits compound into meaningful progress.
Q4: Will small efforts really protect me from “great fear”?A4: Small efforts build competence and confidence; that steady accumulation reduces anxiety about uncertainty and strengthens your ability to face challenges.
Q5: Is this the same as “just try and ignore results”?A5: Not exactly — the teaching emphasizes sincere, skillful action with ethical intent, combined with wise acceptance of outcomes, rather than careless effort or passivity.

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