Skip to main content

🌿 Bhagavad Gita – Start Your Spiritual Journey

भगवद् गीता अध्याय 2, श्लोक 39 – कर्मयोग का रहस्य और विस्तृत हिन्दी व्याख्या

श्रीमद्भगवद्गीता 2:39 – सांख्य से कर्मयोग तक की सुन्दर यात्रा श्रीमद्भगवद्गीता का दूसरा अध्याय, जिसे सांख्ययोग कहा जाता है, पूरे ग्रन्थ की नींव के समान है। इसी अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण धीरे–धीरे अर्जुन के भीतर छाए हुए मोह, शोक और भ्रम को ज्ञान के प्रकाश से दूर करते हैं। गीता 2:39 वह महत्वपूर्ण श्लोक है जहाँ तक भगवान कृष्ण ने आत्मा–देह, जीवन–मृत्यु और कर्तव्य का सिद्धान्त (Theory) समझाया और अब वे कर्मयोग की व्यावहारिक शिक्षा (Practical) की ओर प्रवेश कराते हैं। इस श्लोक में भगवान स्पष्ट संकेत देते हैं कि – “अब तक मैंने जो कहा, वह सांख्य रूप में था; अब तुम इसे योग रूप में सुनो।” साधारण भाषा में कहें तो जैसे कोई गुरु पहले छात्र को विषय का पूरा सिद्धान्त समझाता है, फिर कहता है – “अब इसे Practically कैसे लागू करना है, ध्यान से सुनो।” यही रूपांतरण 2:39 में दिखाई देता है। संस्कृत श्लोक (गीता 2:39): एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु। बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि...

भगवद् गीता अध्याय 2, श्लोक 55– स्थितप्रज्ञ की परिभाषा, आत्म-संतोष और इच्छाओं का त्याग

गीता 2:55 – भाग 1 : स्थितप्रज्ञ की पहली पहचान और कामनाओं का त्याग

श्लोक 2:55 का प्रसंग

गीता अध्याय 2 में अर्जुन द्वारा पूछे गए प्रश्नों का उत्तर देते हुए श्रीकृष्ण अब स्थितप्रज्ञ पुरुष की स्पष्ट परिभाषा देना प्रारंभ करते हैं। पिछले श्लोक (2:54) में अर्जुन ने पूछा था कि स्थितप्रज्ञ व्यक्ति कैसा बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है। अब श्लोक 2:55 में श्रीकृष्ण उस अवस्था की भीतरी पहचान बताते हैं।

यह श्लोक स्थितप्रज्ञ के बाहरी व्यवहार से अधिक उसके अंतर्मन पर प्रकाश डालता है।


गीता 2:55 – मूल श्लोक

प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते॥
श्रीकृष्ण अर्जुन को गीता 2:55 में स्थितप्रज्ञ पुरुष की परिभाषा समझाते हुए – इच्छाओं का त्याग और आत्मा में संतोष
श्रीकृष्ण बताते हैं कि जब मनुष्य मन की सभी कामनाओं से मुक्त होकर आत्मा में संतुष्ट रहता है, तभी वह स्थितप्रज्ञ कहलाता है 

भगवद्गीता 2:55 – अर्जुन और श्रीकृष्ण का संवाद

अर्जुन पूछते हैं:

हे केशव! आपने जिस स्थितप्रज्ञ पुरुष का वर्णन किया है, उसकी पहचान क्या है? वह व्यक्ति कैसा होता है, कैसे बोलता है और कैसे जीवन जीता है?


श्रीकृष्ण उत्तर देते हैं:

हे पार्थ! जब मनुष्य अपने मन में उठने वाली सभी कामनाओं को त्याग देता है और आत्मा में ही संतुष्ट रहता है, तब उसे स्थितप्रज्ञ कहा जाता है।

ऐसा व्यक्ति बाहरी सुखों पर निर्भर नहीं रहता। उसका आनंद भीतर से आता है, इसलिए न तो उसे अधिक चाहत सताती है और न ही अभाव उसे विचलित करता है।

वह न परिस्थितियों से डरता है, न इच्छाओं के पीछे भागता है। उसका मन शांत, स्थिर और आत्मनिष्ठ होता है।

यही सच्ची बुद्धि की अवस्था है — जहाँ मनुष्य संसार में रहते हुए भी भीतर से स्वतंत्र रहता है।

भावार्थ:
श्रीकृष्ण कहते हैं— हे पार्थ! जब मनुष्य मन में उत्पन्न होने वाली सभी कामनाओं को त्याग देता है और आत्मा में ही आत्मा से संतुष्ट रहता है, तब वह स्थितप्रज्ञ कहलाता है।


“कामनाओं का त्याग” – गलतफहमी और सही अर्थ

अक्सर लोग इस श्लोक को पढ़कर यह समझ लेते हैं कि स्थितप्रज्ञ बनने के लिए सभी इच्छाओं को पूरी तरह समाप्त करना आवश्यक है। पर श्रीकृष्ण यहाँ इच्छाओं के दमन की नहीं, आसक्ति के त्याग की बात करते हैं।

  • इच्छा होना स्वाभाविक है
  • पर इच्छा का दास बन जाना बंधन है
  • स्थितप्रज्ञ इच्छाओं को पहचानता है
  • पर उनके पीछे अंधा नहीं दौड़ता

“इच्छा का अंत नहीं, इच्छा पर अधिकार ही स्थितप्रज्ञता है।”


मनोगतान् कामान् – मन की इच्छाएँ

श्रीकृष्ण विशेष रूप से कहते हैं – मनोगतान् कामान्, अर्थात वे इच्छाएँ जो मन में जन्म लेती हैं।

मन की इच्छाएँ अक्सर:

  • तुलना से उत्पन्न होती हैं
  • असुरक्षा से बढ़ती हैं
  • भविष्य की चिंता से जन्म लेती हैं

स्थितप्रज्ञ इन इच्छाओं को देखता है, पर उनसे संचालित नहीं होता।

“जो मन को देख लेता है, वह मन के वश में नहीं रहता।”


आत्मन्येवात्मना तुष्टः – आत्म-संतोष

यह श्लोक का सबसे गूढ़ भाग है। स्थितप्रज्ञ वह है जो आत्मा में ही संतुष्ट रहता है।

इसका अर्थ यह नहीं कि वह संसार का आनंद नहीं लेता, बल्कि यह कि उसकी खुशी का स्रोत बाहर नहीं, भीतर होता है।

  • वह प्रशंसा पर निर्भर नहीं
  • वह उपलब्धियों से स्वयं को नहीं मापता
  • वह तुलना से मुक्त होता है

“भीतर की पूर्णता, बाहर की कमी को अर्थहीन बना देती है।”


अर्जुन के लिए इस शिक्षा का महत्व

अर्जुन का दुख केवल युद्ध का नहीं था, बल्कि मन की इच्छाओं, मोह और भय का था।

श्रीकृष्ण उसे समझाते हैं कि जब तक मन इच्छाओं से भरा रहेगा, तब तक बुद्धि स्थिर नहीं हो सकती।

“मन शांत होगा, तभी निर्णय स्पष्ट होंगे।”


आधुनिक जीवन में गीता 2:55 (भाग 1)

आज के जीवन में यह श्लोक अत्यंत प्रासंगिक है:

  • लगातार तुलना
  • असीमित इच्छाएँ
  • सोशल मीडिया का दबाव

गीता 2:55 हमें सिखाती है कि शांति का मार्ग इच्छाओं की पूर्ति में नहीं, इच्छाओं की समझ में है।

“Less craving, more clarity.”


भाग 1 का सार

  • स्थितप्रज्ञ इच्छाओं का दमन नहीं करता
  • वह आसक्ति से मुक्त होता है
  • उसकी संतुष्टि आत्मा से आती है
  • मन की शांति स्थिर बुद्धि की नींव है

“Self-contentment is the first sign of wisdom.”

👉 Part 2 में हम समझेंगे: स्थितप्रज्ञ और इच्छाएँ – काम, वासना और संतोष का गहरा अर्थ।

गीता 2:55 – भाग 2 : इच्छाएँ, वासना और स्थितप्रज्ञ का संतुलन

स्थितप्रज्ञ और इच्छाओं का संबंध

गीता 2:55 में श्रीकृष्ण यह स्पष्ट करते हैं कि स्थितप्रज्ञ वह नहीं है जिसकी इच्छाएँ समाप्त हो जाती हैं, बल्कि वह है जो इच्छाओं के अधीन नहीं होता। यह अंतर बहुत सूक्ष्म लेकिन अत्यंत महत्वपूर्ण है।

सामान्य मनुष्य की स्थिति यह होती है कि इच्छाएँ मन में आती हैं और वही उसके निर्णय, व्यवहार और भावनाओं को नियंत्रित करने लगती हैं। पर स्थितप्रज्ञ के लिए इच्छाएँ आदेश नहीं, केवल संकेत होती हैं।

“इच्छाएँ आएँ, पर शासन न करें — यही स्थितप्रज्ञता है।”


काम, वासना और तृष्णा का अंतर

श्रीकृष्ण के उपदेश में काम (इच्छा), वासना (आसक्ति) और तृष्णा (अतृप्त लालसा) — तीनों में स्पष्ट अंतर है।

  • काम – स्वाभाविक इच्छा
  • वासना – इच्छा से जुड़ी आसक्ति
  • तृष्णा – कभी न भरने वाली चाह

स्थितप्रज्ञ काम को पहचानता है, वासना को नियंत्रित करता है और तृष्णा को त्याग देता है।

“तृष्णा ही दुःख का मूल है, इच्छा नहीं।”


इच्छाओं का दमन नहीं, रूपांतरण

गीता इच्छाओं को दबाने का मार्ग नहीं सिखाती। दमन से इच्छाएँ भीतर दब जाती हैं और समय आने पर अधिक बल से बाहर आती हैं।

स्थितप्रज्ञ इच्छाओं का रूपांतरण करता है —

  • स्वार्थ से सेवा की ओर
  • भोग से संतोष की ओर
  • अहंकार से कर्तव्य की ओर

इस रूपांतरण से मन हल्का होता है और बुद्धि स्थिर होने लगती है।

“रूपांतरण मुक्ति देता है, दमन नहीं।”


स्थितप्रज्ञ और संतोष

श्लोक 2:55 का दूसरा भाग कहता है — आत्मन्येवात्मना तुष्टः, अर्थात स्थितप्रज्ञ आत्मा में ही संतुष्ट रहता है।

यह संतोष आलस्य नहीं है। यह वह अवस्था है जहाँ मनुष्य निरंतर “और चाहिए” की भावना से मुक्त हो जाता है।

  • वह उपलब्धियों से स्वयं को नहीं मापता
  • वह दूसरों की प्रगति से जलता नहीं
  • वह अपनी यात्रा से संतुष्ट रहता है

“संतोष ठहराव नहीं, स्थिरता है।”


इच्छाएँ और निर्णय

जब इच्छाएँ अनियंत्रित होती हैं, तो निर्णय जल्दबाज़ी में होते हैं। पर स्थितप्रज्ञ इच्छाओं को निर्णय से पहले शांत कर लेता है।

इसी कारण:

  • उसके निर्णय दीर्घकालिक होते हैं
  • वह पश्चाताप से बचा रहता है
  • उसकी बुद्धि स्पष्ट रहती है

“शांत मन से लिया गया निर्णय कभी पछतावा नहीं देता।”


आधुनिक जीवन में इच्छाओं की चुनौती

आज का जीवन इच्छाओं को लगातार उत्तेजित करता है —

  • विज्ञापन
  • सोशल मीडिया
  • तुलना की संस्कृति

ऐसे में गीता 2:55 हमें सिखाती है कि हर इच्छा को पूरा करना स्वतंत्रता नहीं, इच्छाओं से ऊपर उठना स्वतंत्रता है।

“Freedom begins where craving ends.”


भाग 2 का सार

  • स्थितप्रज्ञ इच्छाओं का दास नहीं होता
  • काम, वासना और तृष्णा में भेद समझता है
  • इच्छाओं का रूपांतरण करता है
  • आत्मिक संतोष से स्थिरता प्राप्त करता है

“Master desire, and the mind becomes free.”

👉 Part 3 में हम जानेंगे: स्थितप्रज्ञ और सुख–दुःख, मानसिक संतुलन का विज्ञान।

गीता 2:55 – भाग 3 : सुख–दुःख में स्थितप्रज्ञ की मानसिक स्थिरता

सुख–दुःख का द्वंद्व और मानव मन

मानव जीवन स्वभावतः सुख और दुःख के बीच झूलता रहता है। सामान्य व्यक्ति सुख मिलने पर अति-उत्साहित हो जाता है और दुःख आने पर टूट जाता है। गीता 2:55 के संदर्भ में श्रीकृष्ण बताते हैं कि स्थितप्रज्ञ इन दोनों अवस्थाओं को अस्थायी अनुभव मानता है।

“जो आने-जाने वाला है, वह स्थायी सत्य नहीं हो सकता।”


स्थितप्रज्ञ का दृष्टिकोण

स्थितप्रज्ञ सुख को पकड़कर नहीं रखता और दुःख को धकेलकर नहीं भगाता। वह जानता है कि दोनों जीवन की स्वाभाविक प्रक्रियाएँ हैं।

  • सुख में संयम
  • दुःख में धैर्य
  • दोनों में समभाव

“समभाव ही मानसिक स्वतंत्रता की कुंजी है।”


दुःख में स्थितप्रज्ञ

दुःख की अवस्था में स्थितप्रज्ञ आत्म-दया में नहीं डूबता। वह स्थिति को स्वीकार करता है, पर उससे अपनी पहचान नहीं बनाता।

  • विलाप में ऊर्जा नष्ट नहीं करता
  • निराशा में विवेक नहीं खोता
  • अनुभव से सीख लेता है

“दुःख को शिक्षक बनाना ही बुद्धिमत्ता है।”


सुख में स्थितप्रज्ञ

सुख की अवस्था में स्थितप्रज्ञ अहंकार में नहीं डूबता। वह सुख का आनंद लेता है, पर उससे चिपकता नहीं।

  • सफलता को अंतिम सत्य नहीं मानता
  • प्रशंसा से अंधा नहीं होता
  • सुख को साझा करता है

“सुख में विनम्रता, स्थितप्रज्ञ की पहचान है।”


मानसिक संतुलन का विज्ञान

आधुनिक मनोविज्ञान भी यह मानता है कि भावनात्मक संतुलन व्यक्ति को अधिक स्वस्थ और निर्णयक्षम बनाता है। गीता 2:55 हजारों वर्ष पहले इसी सत्य को प्रकट कर चुकी थी।

  • भावनाओं की स्वीकृति
  • प्रतिक्रिया से पहले ठहराव
  • विवेक से निर्णय

“Balance is intelligence in action.”


अर्जुन के जीवन में इसका अर्थ

युद्धभूमि में खड़ा अर्जुन सुख–दुःख के चरम द्वंद्व में था। श्रीकृष्ण उसे सिखाते हैं कि स्थिति कैसी भी हो, मन का संतुलन बना रहना चाहिए।

“युद्ध बाहर है, पर विजय भीतर से शुरू होती है।”


आधुनिक जीवन में गीता 2:55 (भाग 3)

आज के जीवन में सुख–दुःख के रूप बदल गए हैं—

  • सफलता–असफलता
  • लाइक–अनलाइक
  • मान्यता–उपेक्षा

गीता 2:55 हमें सिखाती है कि इन बाहरी संकेतों से अपनी मानसिक स्थिति तय न करें।

“Don’t let events decide your peace.”


भाग 3 का सार

  • स्थितप्रज्ञ सुख–दुःख को अस्थायी मानता है
  • समभाव से मानसिक संतुलन बनाए रखता है
  • दुःख से सीखता है, सुख में विनम्र रहता है
  • यही स्थिर बुद्धि की पहचान है

“Equanimity is freedom of the mind.”

👉 Part 4 में हम समझेंगे: स्थितप्रज्ञ और आत्म-संतोष – भीतर की पूर्णता का रहस्य।

गीता 2:55 – भाग 4 : स्थितप्रज्ञ और आत्म-संतोष – भीतर की पूर्णता का रहस्य

आत्म-संतोष का वास्तविक अर्थ

गीता 2:55 का सबसे गूढ़ और प्रभावशाली वाक्य है — “आत्मन्येवात्मना तुष्टः”। इसका अर्थ है कि स्थितप्रज्ञ पुरुष अपनी आत्मा में ही संतुष्ट रहता है।

आत्म-संतोष का अर्थ यह नहीं कि व्यक्ति संसार के सुखों से विमुख हो जाए, बल्कि यह कि उसकी खुशी का मूल स्रोत बाहरी परिस्थितियाँ न होकर आंतरिक चेतना हो।

“जहाँ भीतर पूर्णता हो, वहाँ बाहर की कमी व्यर्थ हो जाती है।”


आत्म-संतोष और आत्म-सम्मान

अक्सर आत्म-संतोष और आत्म-सम्मान को एक जैसा मान लिया जाता है, पर दोनों में सूक्ष्म अंतर है।

  • आत्म-सम्मान – स्वयं के प्रति सम्मान
  • आत्म-संतोष – स्वयं में पूर्णता का अनुभव

स्थितप्रज्ञ दोनों को संतुलित रखता है। वह स्वयं का सम्मान करता है, पर अपने अहंकार से बँधता नहीं।

“सम्मान बाहर से माँगना पड़ता है, संतोष भीतर से आता है।”


आत्म-संतोष और इच्छाएँ

आत्म-संतोष का सीधा संबंध इच्छाओं के नियंत्रण से है। जब व्यक्ति भीतर से संतुष्ट होता है, तब इच्छाएँ स्वतः शांत होने लगती हैं।

  • वह हर उपलब्धि से अपनी कीमत नहीं आँकता
  • वह दूसरों की प्रगति से असुरक्षित नहीं होता
  • वह तुलना की आग से मुक्त रहता है

“भीतर संतोष हो, तो बाहर की दौड़ समाप्त हो जाती है।”


आत्म-संतोष और कर्म

स्थितप्रज्ञ आत्म-संतोष के कारण कर्म से विमुख नहीं होता, बल्कि अधिक प्रभावी बन जाता है।

जब कर्म आत्म-संतोष से जुड़ता है:

  • कार्य बोझ नहीं रहता
  • परिणाम भय नहीं पैदा करता
  • प्रयास में आनंद आता है

“आनंद से किया गया कर्म, बंधन नहीं बनता।”


अर्जुन के जीवन में आत्म-संतोष का संदेश

अर्जुन का संकट केवल युद्ध का नहीं था, बल्कि आत्म-संदेह का था। श्रीकृष्ण उसे सिखाते हैं कि जब तक व्यक्ति भीतर से संतुष्ट नहीं होता, तब तक कोई भी निर्णय शांति नहीं देता।

आत्म-संतोष अर्जुन को अपने कर्तव्य को स्वीकार करने की शक्ति देता है।

“जो स्वयं से संतुष्ट है, वह कर्तव्य से नहीं भागता।”


आधुनिक जीवन में आत्म-संतोष

आज का जीवन बाहरी उपलब्धियों पर आत्म-मूल्य निर्धारित करता है —

  • पद
  • धन
  • मान्यता

गीता 2:55 हमें सिखाती है कि आत्म-संतोष के बिना ये सभी अस्थायी हैं।

“Inner fulfillment is the strongest success.”


आत्म-संतोष विकसित करने के व्यावहारिक उपाय

  • दैनिक आत्म-चिंतन
  • कृतज्ञता का अभ्यास
  • तुलना से दूरी
  • फल नहीं, प्रयास पर ध्यान

ये अभ्यास धीरे-धीरे मन को स्थिर और संतुष्ट बनाते हैं।

“Contentment is cultivated, not achieved overnight.”


भाग 4 का सार

  • आत्म-संतोष स्थितप्रज्ञ की आधारशिला है
  • भीतर की पूर्णता इच्छाओं को शांत करती है
  • आत्म-संतोष कर्म को आनंदमय बनाता है
  • यही स्थिर बुद्धि की गहराई है

“Contentment completes wisdom.”

👉 Part 5 में हम जानेंगे: श्रीकृष्ण–अर्जुन संवाद और गीता 2:55 का भावनात्मक पक्ष।

गीता 2:55 – भाग 5 : श्रीकृष्ण–अर्जुन संवाद और स्थितप्रज्ञ का भावनात्मक संतुलन

अर्जुन की चिंता – क्या इच्छाओं का त्याग जीवन को नीरस बना देता है?

अर्जुन के मन में एक स्वाभाविक शंका उठती है। वह सोचता है—यदि मनुष्य कामनाओं का त्याग कर दे, तो क्या जीवन का रस समाप्त नहीं हो जाएगा? क्या स्थितप्रज्ञ व्यक्ति भावनाओं से कट जाता है?

“हे मधुसूदन, यदि इच्छाएँ शांत हो जाएँ, तो क्या जीवन में आनंद शेष रहता है?”


श्रीकृष्ण का उत्तर – त्याग नहीं, परिपक्वता

श्रीकृष्ण शांत स्वर में उत्तर देते हैं—

“अर्जुन, स्थितप्रज्ञ इच्छाओं का अंत नहीं करता, वह इच्छाओं को परिपक्व बनाता है। आनंद का स्रोत बाहर नहीं, भीतर होता है।”

वे स्पष्ट करते हैं कि स्थितप्रज्ञ जीवन से भागता नहीं, बल्कि जीवन को गहराई से जीता है। अंतर केवल इतना है कि उसका आनंद क्षणिक भोग पर नहीं, आत्मिक संतोष पर आधारित होता है।

“जहाँ आत्म-संतोष हो, वहाँ जीवन नीरस नहीं होता।”


भावनाएँ – दमन नहीं, दिशा

अर्जुन पूछता है—क्रोध, भय और दुःख का क्या? क्या स्थितप्रज्ञ इनसे मुक्त हो जाता है?

श्रीकृष्ण कहते हैं—

  • स्थितप्रज्ञ भावनाओं को दबाता नहीं
  • वह उन्हें समझता है
  • और विवेक से दिशा देता है

क्रोध उठे तो वह ठहरता है, भय आए तो वह देखता है, दुःख आए तो वह सीखता है।

“भावनाओं पर विवेक की छाया ही योग है।”


सुख में संयम, दुःख में धैर्य

श्रीकृष्ण अर्जुन को बताते हैं कि स्थितप्रज्ञ का संतुलन दोनों अवस्थाओं में समान रहता है।

  • सुख में वह अहंकार से बचता है
  • दुःख में वह आत्म-दया से दूर रहता है
  • दोनों में वह सीख खोजता है

“संयम और धैर्य, स्थितप्रज्ञ के दो पंख हैं।”


अर्जुन का परिवर्तन – शंका से स्पष्टता

इस संवाद के साथ अर्जुन के मन की कई शंकाएँ शांत होने लगती हैं। वह समझने लगता है कि स्थितप्रज्ञ बनना जीवन छोड़ना नहीं, जीवन को संतुलित करना है।

अब अर्जुन के लिए त्याग का अर्थ हानि नहीं, बल्कि स्वतंत्रता बन जाता है।

“जहाँ आसक्ति छूटती है, वहीं शांति जन्म लेती है।”


आधुनिक जीवन में संवाद का अर्थ

आज का मनुष्य भी अर्जुन की तरह पूछता है— क्या इच्छाएँ कम करने से जीवन छोटा हो जाएगा?

गीता 2:55 का यह संवाद सिखाता है कि इच्छाओं का अंधा पीछा जीवन को थका देता है, जबकि आत्म-संतोष जीवन को गहराई देता है।

“Less craving, deeper living.”


भाग 5 का सार

  • स्थितप्रज्ञ जीवन से कटता नहीं
  • वह भावनाओं को दिशा देता है
  • सुख में संयम, दुःख में धैर्य रखता है
  • आनंद का स्रोत आत्म-संतोष है

“Emotional maturity defines true wisdom.”

👉 Part 6 (FINAL) में हम जानेंगे: गीता 2:55 का संपूर्ण निष्कर्ष, आधुनिक जीवन में उपयोग और मोक्ष की दिशा।

गीता 2:55 – भाग 6 (अंतिम) : स्थितप्रज्ञ, मोक्ष की दिशा और जीवन का संपूर्ण निष्कर्ष

स्थितप्रज्ञ की अंतिम पहचान

गीता 2:55 में श्रीकृष्ण स्थितप्रज्ञ की जो परिभाषा देते हैं, वह केवल एक दार्शनिक विचार नहीं, बल्कि जीवन जीने की एक परिपक्व अवस्था है। स्थितप्रज्ञ वह है जो मन में उठने वाली सभी कामनाओं से आसक्ति छोड़ देता है और आत्मा में ही संतुष्ट रहता है।

“जहाँ मन की दौड़ समाप्त होती है, वहीं स्थितप्रज्ञ की अवस्था आरंभ होती है।”


मोक्ष की दिशा – पलायन नहीं, स्वतंत्रता

गीता 2:55 यह स्पष्ट करती है कि मोक्ष संसार छोड़ने का नाम नहीं, बल्कि आसक्ति से मुक्त होकर संसार में जीने का नाम है।

  • कर्म चलता रहता है
  • रिश्ते बने रहते हैं
  • कर्तव्य निभाए जाते हैं

पर भीतर मन स्वतंत्र रहता है। यही स्वतंत्रता मोक्ष की दिशा है।

“मोक्ष जीवन से भागना नहीं, जीवन को बिना बंधन जीना है।”


स्थितप्रज्ञ और कर्मयोग

स्थितप्रज्ञ कर्म करता है, पर कर्म उसे बाँधता नहीं। क्योंकि उसके कर्म:

  • फल की लालसा से मुक्त होते हैं
  • अहंकार से रहित होते हैं
  • कर्तव्य-बोध से प्रेरित होते हैं

ऐसा कर्म ही कर्मयोग कहलाता है।

“आसक्ति रहित कर्म ही मुक्ति का द्वार है।”


आधुनिक जीवन में गीता 2:55

आज के युग में गीता 2:55 अत्यंत प्रासंगिक है।

  • अत्यधिक इच्छाएँ
  • लगातार तुलना
  • डिजिटल उत्तेजना

इन सबके बीच स्थितप्रज्ञ की अवस्था मानसिक स्वास्थ्य और संतुलन की सबसे बड़ी ढाल है।

“Contentment is the new success.”


स्थितप्रज्ञ बनने के व्यावहारिक सूत्र

  • हर इच्छा पर तुरंत प्रतिक्रिया न दें
  • इच्छा और आवश्यकता में अंतर करें
  • प्रतिदिन आत्म-चिंतन करें
  • फल से अधिक प्रयास पर ध्यान दें

ये छोटे अभ्यास धीरे-धीरे मन को शांत और बुद्धि को स्थिर बनाते हैं।

“Small awareness creates big freedom.”


अर्जुन का आंतरिक परिवर्तन

गीता 2:55 के अंत तक अर्जुन का दृष्टिकोण पूरी तरह बदल चुका है। अब वह समझने लगता है कि युद्ध केवल बाहरी नहीं, भीतरी भी है — और भीतरी युद्ध जीतना ही सच्ची विजय है।

“जो स्वयं को जीत ले, वही संसार को सही ढंग से जी सकता है।”


गीता 2:55 – संपूर्ण श्रृंखला का निष्कर्ष

  • स्थितप्रज्ञ इच्छाओं का दास नहीं होता
  • आत्म-संतोष उसकी शक्ति है
  • समभाव उसका स्वभाव है
  • आसक्ति-रहित कर्म उसकी साधना है

गीता 2:55 हमें यह सिखाती है कि सच्ची शांति बाहर नहीं, भीतर घटित होती है।

“From craving to clarity, from attachment to freedom — यही गीता 2:55 का शाश्वत संदेश है।”

FAQ – गीता 2:55 से जुड़े सामान्य प्रश्न

गीता 2:55 में स्थितप्रज्ञ की मुख्य पहचान क्या है?
गीता 2:55 के अनुसार स्थितप्रज्ञ वह है जो मन में उठने वाली सभी कामनाओं की आसक्ति छोड़ देता है और आत्मा में ही संतुष्ट रहता है।

क्या स्थितप्रज्ञ इच्छाओं को पूरी तरह समाप्त कर देता है?
नहीं, स्थितप्रज्ञ इच्छाओं का दमन नहीं करता, बल्कि उन पर नियंत्रण रखता है और उनसे बँधता नहीं।

आत्म-संतोष का क्या अर्थ है?
आत्म-संतोष का अर्थ है बाहर की परिस्थितियों पर निर्भर हुए बिना भीतर से संतुष्ट और पूर्ण अनुभव करना।

गीता 2:55 आधुनिक जीवन में कैसे उपयोगी है?
यह श्लोक तनाव, तुलना और असीमित इच्छाओं के बीच मानसिक संतुलन और शांति बनाए रखने का मार्ग दिखाता है।

क्या गीता 2:55 मोक्ष से जुड़ी है?
हाँ, यह श्लोक आसक्ति से मुक्ति और आंतरिक स्वतंत्रता की ओर ले जाता है, जो मोक्ष की दिशा है।

Disclaimer:
यह लेख भगवद गीता के श्लोक 2:55 पर आधारित एक शैक्षणिक और आध्यात्मिक व्याख्या है। इस वेबसाइट पर प्रकाशित सामग्री केवल सामान्य जानकारी और अध्ययन के उद्देश्य से प्रस्तुत की गई है। यह लेख किसी भी प्रकार की धार्मिक प्रचार, चमत्कारिक दावा, चिकित्सीय, कानूनी या वित्तीय सलाह नहीं देता। पाठकों से अनुरोध है कि किसी भी महत्वपूर्ण निर्णय से पहले स्वयं विवेक का प्रयोग करें या संबंधित विशेषज्ञ से परामर्श लें। इस वेबसाइट का उद्देश्य भगवद गीता के शाश्वत संदेशों को सकारात्मक, नैतिक और व्यावहारिक दृष्टिकोण से प्रस्तुत करना है।

Bhagavad Gita 2:55 – The State of Inner Fulfillment

Bhagavad Gita 2:55 describes the inner state of a person who has attained steady wisdom. Krishna explains that when a person abandons all selfish desires arising in the mind and finds satisfaction within the Self, that person is called truly wise. This verse highlights inner fulfillment as the foundation of peace and clarity.

In modern life, dissatisfaction often comes from constant desire—wanting more success, approval, possessions, or recognition. Gita 2:55 teaches that when fulfillment depends only on external outcomes, the mind remains restless. True stability arises when contentment is rooted within.

This verse does not promote indifference or lack of ambition. Instead, it encourages freedom from unhealthy craving. A person who is inwardly fulfilled works efficiently, makes clear decisions, and remains emotionally balanced. Such inner satisfaction strengthens focus and resilience.

From a professional and leadership perspective, Gita 2:55 is deeply practical. Leaders who are not driven by ego or constant desire for validation inspire trust and calmness. Their actions are guided by purpose rather than pressure.

Ultimately, Bhagavad Gita 2:55 teaches that peace is not found by controlling the world, but by understanding the mind. When desires settle, clarity rises, and life is lived with confidence and ease.

Frequently Asked Questions

What does Bhagavad Gita 2:55 describe?

It describes the qualities of a person who is inwardly fulfilled and free from selfish desires.

Does this verse suggest giving up all desires?

No. It advises letting go of ego-driven and restless desires, not meaningful effort.

How is this verse relevant to modern life?

It helps reduce stress, overthinking, and dissatisfaction by encouraging inner contentment.

Can a fulfilled person still work and lead?

Yes. Inner fulfillment improves clarity, leadership, and balanced decision-making.

Comments