गीता 2:48 – भाग 1: समत्व योग की शुरुआत — जीवन को संतुलन में जीने की दिव्य कला
श्लोक 2:48 — समत्व योग का मूल सूत्र
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥
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| गीता 2:48: समत्व में किया गया कर्म ही सच्चा योग है। |
गीता 2:48 – श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद
रणभूमि में अर्जुन का मन भय, शोक और द्वंद्व से व्याकुल था। उसने श्रीकृष्ण से कहा —
“हे जनार्दन, कभी विजय का विचार मुझे उत्साहित करता है, तो कभी पराजय का भय मेरे मन को तोड़ देता है। मैं इस अस्थिर मन के साथ कर्म कैसे करूँ?”
तब श्रीकृष्ण ने शांत और दृढ़ स्वर में अर्जुन को समझाया —
“अर्जुन, योग में स्थित होकर कर्म कर। सफलता और असफलता—दोनों में समभाव रख।”
अर्जुन ने जिज्ञासा से पूछा —
“प्रभु, यह समभाव कैसे संभव है?”
श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया —
“जब मन परिणामों से ऊपर उठ जाता है, तभी कर्म शुद्ध और स्थिर बनता है। समत्व ही योग है।”
श्रीकृष्ण ने समझाया कि जो व्यक्ति लाभ और हानि, जय और पराजय में समान रहता है, वही वास्तव में योग में स्थित होता है।
उस क्षण अर्जुन ने जाना कि योग का अर्थ कर्म छोड़ना नहीं, मन को संतुलित रखकर कर्म करना है।
अर्थ: हे धनंजय! योग में स्थित होकर, आसक्ति त्यागकर कर्म करो। सफलता और असफलता में समानभाव रखते हुए कर्म करना ही समत्व योग कहलाता है।
समत्व योग — जीवन का सबसे गहरा और सबसे कठिन सिद्धांत
गीता 2:48 उस क्षण आता है जब अर्जुन मानसिक उलझनों के बीच डूबा हुआ है— भय, मोह, दया, भ्रम, करुणा, हानि का भय, परिवार खोने का दुख… उसके मन में अनगिनत भावनाएँ हैं जो उसे निर्णयहीन बना रही हैं।
यही वह क्षण है जब भगवान श्रीकृष्ण जीवन का सबसे बड़ा सूत्र बताते हैं:
“परिस्थितियाँ चाहे जैसी हों — मन समान रहे, शांत रहे, स्थिर रहे।”
यही योग है। यही समत्व योग है। यही जीवन जीने की सबसे उच्च कला है।
कृष्ण का संदेश — “फल की आसक्ति मत रखो”
अर्जुन युद्ध करना चाहता है लेकिन डर रहा है कि:
- अगर मैं जीत गया तो क्या होगा?
- अगर मैं हार गया तो क्या होगा?
- अगर मैं अपने परिजनों को मार दिया तो?
- अगर मुझे पाप लगा तो?
- अगर लोग मुझे दोष दें तो?
अर्जुन परिणामों में उलझ गया है। कृष्ण उसे बताते हैं:
“तुम्हारा काम केवल कर्म करना है— परिणाम ईश्वर पर छोड़ दो।”
यह शिक्षा गीता का सबसे महत्वपूर्ण मनोवैज्ञानिक संदेश है। मन परिणाम से जुड़ता है, इसलिए डरता है। जब मन परिणाम से मुक्त हो जाता है— तब कर्म शक्तिशाली हो जाता है।
समत्व क्यों? क्योंकि जीवन हमेशा दो विपरीत परिस्थितियों में चलता है
जीवन हमेशा “द्वंद्व” में चलता है:
- सफलता – असफलता
- लाभ – हानि
- प्रशंसा – निंदा
- जीवन – मृत्यु
- खुशी – दुख
कृष्ण कहते हैं— इन सबके बीच “मन को एक जैसा” रखना ही योग है।
“Joy and sorrow come and go. Your balance should remain.”
समत्व कोई भावहीनता नहीं है, समत्व एक स्थिर मन की अवस्था है।
अर्जुन का भ्रम — “मैं कैसे समभाव रखूँ?”
अर्जुन सोचता है:
“मेरे सामने मेरा परिवार खड़ा है। क्या मैं उनसे लड़ते समय भी शांत रहूँ?”
यह एक मनुष्य का स्वाभाविक प्रश्न है। और इसी प्रश्न के लिए कृष्ण समत्व योग की व्याख्या शुरू करते हैं।
कृष्ण कहते हैं— जब तुम आत्मा के स्तर पर खड़े हो जाते हो, तो भावनाएँ तुम्हें डगमगाती नहीं हैं।
समत्व योग का अर्थ भावनाएँ दबाना नहीं, बल्कि उनसे ऊपर उठना है।
समत्व = Mind Training (मन का प्रशिक्षण)
आधुनिक मनोविज्ञान कहता है कि मन हमेशा प्रतिक्रिया करता है:
- कुछ अच्छा हुआ → खुशी
- कुछ बुरा हुआ → दुख
- कोई तारीफ करे → उत्साह
- कोई आलोचना करे → क्रोध
लेकिन गीता कहती है— इन प्रतिक्रियाओं को “कंट्रोल” करना ही योग है।
“You control the action. Don’t let emotions control you.”
मन का प्रशिक्षण ही योग है। संतुलन ही योग है। शांति ही योग है।
भाग 1 का अंतिम सार — “समत्व ही कर्मयोग की जड़ है”
Part 1 में कृष्ण अर्जुन को बताते हैं कि:
- कर्म करते समय मन संतुलित रहना चाहिए
- परिणाम में आसक्ति नहीं रखनी चाहिए
- सफलता–असफलता दोनों में समानभाव रहो
- समत्व ही असली योग है
- समत्व से ही मन शांत और शक्तिशाली बनता है
“Balance is power. Equanimity is yoga.”
Part 2 में हम सीखेंगे कि समत्व योग को व्यवहार में कैसे लाया जाए, कृष्ण इसके पीछे का आध्यात्मिक विज्ञान कैसे बताते हैं, और समत्व योग क्यों हर मनुष्य को जीवन में अपनाना चाहिए।
गीता 2:48 – भाग 2: समत्व योग का मनोवैज्ञानिक और आध्यात्मिक आधार – मन को स्थिर कैसे रखें?
कृष्ण का गहन संदेश — “भावनाएँ तुम्हें हिलाएँ, पर गिराएँ नहीं”
Geeta 2:48 में कृष्ण अर्जुन को बताते हैं कि जीवन में परीक्षाएँ आएँगी, परिस्थितियाँ बदलेंगी, लोग बदलेंगे, सफलता और असफलता भी बदलती रहेगी। लेकिन इन सबके बीच यदि तुम स्थिर नहीं रहोगे, तो तुम स्वयं को खो दोगे।
कृष्ण मनुष्य की सबसे बड़ी शक्ति बताते हैं:
“स्थिर मन — Steady Mind”
मन स्थिर होगा तो व्यक्ति हर परिस्थिति में सही निर्णय ले सकेगा। यही समत्व योग का मूल है।
कृष्ण का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण — मन दो चीजों से असंतुलित होता है
कृष्ण बताते हैं कि मन दो कारणों से असंतुलित होता है:
- 1. आसक्ति (Attachment) – मुझे यह चाहिए ही चाहिए।
- 2. द्वेष (Aversion) – मुझे यह बिल्कुल नहीं चाहिए।
इन दोनों अवस्थाओं में मन संतुलन खो देता है।
यदि व्यक्ति चाहता है कि उसका मन कभी परेशान न हो, तो उसे इच्छा और घृणा दोनों से ऊपर उठना होगा।
“Where there is attachment, there is fear and suffering.”
यही कारण है कि कृष्ण कहते हैं —
“सिद्धि–असिद्धि में समान भाव रखो।”
अर्जुन का प्रश्न — “क्या समभाव का अर्थ भावहीन होना है?”
अर्जुन सोचता है कि यदि उसे हर परिस्थिति में समान रहना है, तो क्या उसे भावनाएँ छोड़नी होंगी?
कृष्ण इस भ्रम को दूर करते हैं:
“समत्व का अर्थ भावहीन होना नहीं, बल्कि भावनाओं का दास न बनना है।”
किसी को प्रेम करो, पर आसक्त मत बनो। समझदारी से कार्य करो, पर परिणाम का गुलाम मत बनो। यही संतुलन है।
समत्व योग क्यों कठिन है? क्योंकि मन हमेशा प्रतिक्रिया करता है
मनुष्य का मन स्वभाव से प्रतिक्रिया करने वाला है:
- प्रशंसा → प्रसन्नता
- आलोचना → दुख
- लाभ → उत्साह
- हानि → अवसाद
लेकिन कृष्ण सिखाते हैं कि यदि मन इन प्रतिक्रियाओं से मुक्त हो जाए, तो ही व्यक्ति स्वतंत्र हो सकता है।
“Reaction is bondage. Observation is freedom.”
समत्व योग मन को प्रतिक्रिया से अवलोकन की अवस्था में ले जाता है।
समत्व योग = Emotional Mastery (भावनाओं पर महारथ)
कृष्ण कहते हैं कि जो व्यक्ति अपनी भावनाओं को नियंत्रित कर सकता है, वही अपने जीवन को नियंत्रित कर सकता है।
भावनाएँ बुरी नहीं हैं — uncontrolled emotions बुरी हैं। समत्व योग भावनाओं को peaceful flow में लाता है।
“He who controls his mind, controls his life.”
कृष्ण अर्जुन को युद्ध में खड़ा कर यह सिखा रहे हैं कि बड़ी स्थितियों में भावनाओं को स्थिर रखना सबसे बड़ा साहस है।
कर्मयोग और समत्व योग — दोनों साथ क्यों चलते हैं?
कृष्ण की शिक्षा है:
- कर्म योग = कर्तव्य का पालन
- समत्व योग = परिणाम में संतुलन
दोनों साथ मिलकर ही जीवन को पूर्ण बनाते हैं। यदि व्यक्ति कार्य करे पर मन असंतुलित रहे, तो वह कभी शांति नहीं पा सकता।
“Karma purifies action. Equanimity purifies the mind.”
इसलिए कृष्ण अर्जुन को दोनों सिखा रहे हैं।
समत्व का अभ्यास कैसे करें? (Krishna’s 5-Step Method)
कृष्ण के अनुसार समत्व योग प्राप्त करने के पाँच व्यावहारिक तरीके हैं:
- 1. परिणाम पर नियंत्रण छोड़ो हर परिणाम आपके नियंत्रण में नहीं होता।
- 2. परिस्थितियों पर तटस्थ दृष्टि रखो परिस्थिति अच्छी है या बुरी — यह perception है।
- 3. कर्म पर 100% ध्यान दो जहाँ ध्यान जाता है, ऊर्जा वहीं जाती है।
- 4. भावनाओं को दबाओ मत — देखें दमन दुख देता है, अवलोकन शांति देता है।
- 5. नियमित मन का प्रशिक्षण ध्यान, जप, प्राणायाम मन को स्थिर बनाते हैं।
“Equanimity is a skill. Skills develop with practice.”
भाग 2 का अंतिम सार — समत्व = मानसिक स्वतंत्रता
Part 2 हमें यह समझाता है कि:
- समत्व भावनाओं का दमन नहीं — संतुलन है
- परिणाम पर नियंत्रण छोड़ने से मन शांत होता है
- असंतुलन attachment और aversion से उत्पन्न होता है
- भावनाओं को समझना ही भावनाओं पर नियंत्रण है
- समत्व योग मानसिक स्वतंत्रता की कुंजी है
“Balanced mind = Powerful action.”
Part 3 में हम सीखेंगे कि समत्व योग कैसे व्यक्ति के जीवन, संबंधों, कार्यक्षेत्र और मानसिक स्वास्थ्य को बदल देता है— और क्यों कृष्ण इसे ‘योग’ का सर्वोच्च प्रकार कहते हैं।
गीता 2:48 – भाग 3: समत्व योग का जीवन पर प्रभाव — मानसिक स्थिरता, सफलता और संबंधों में शांति
समत्व योग मनुष्य का पूरा जीवन बदल देता है — मन से लेकर व्यवहार तक
गीता 2:48 केवल युद्धक्षेत्र में दी गई सलाह नहीं है। यह मनुष्य के पूरे जीवन के लिए मानसिक स्थिरता का एक पूर्ण विज्ञान है। कृष्ण अर्जुन को जो ज्ञान दे रहे हैं, वही ज्ञान आज के समय में:
- Stress management
- Emotional intelligence
- Leadership psychology
- Relationship healing
- Career & performance growth
इन सबकी foundation के रूप में स्वीकार किया जा रहा है।
“मन का संतुलन हर सफलता का आधार है।”
I. समत्व योग और मानसिक स्वास्थ्य (Mental Health Mastery)
कृष्ण बताते हैं कि मनुष्य का दुख किसी घटना से नहीं, बल्कि उस घटना पर उसकी प्रतिक्रिया से पैदा होता है।
उदाहरण:
- बहुत लोग असफलता से टूट जाते हैं
- बहुत लोग आलोचना सुनकर दुखी हो जाते हैं
- बहुत लोग छोटी हानि को बड़ा मान लेते हैं
- बहुत लोग निराशा से अपने लक्ष्य छोड़ देते हैं
लेकिन समत्व योग सिखाता है:
“Reaction को नियंत्रित करो, घटना स्वयं कमजोर हो जाएगी।”
इससे मनुष्य के अंदर तीन अद्भुत परिवर्तन आते हैं:
- 1. Anxiety कम होती है
- 2. Emotional stability बढ़ती है
- 3. Decision-making मजबूत होता है
अध्यात्म मन को मजबूत बनाता है— और समत्व योग उसी का शिखर है।
II. समत्व योग और रिश्ते (Relationships)
अधिकतर संबंध इसलिए टूटते हैं क्योंकि मनुष्य समत्व खो देता है:
- गुस्सा जल्दी आना
- क्रोध में निर्णय लेना
- बातों को दिल पर लेना
- उम्मीदें अधिक रखना
- भावनाओं से जल्दी हिल जाना
कृष्ण सिखाते हैं:
“जब मन स्थिर हो जाता है, रिश्ते स्वतः स्थिर हो जाते हैं।”
समत्व योग रिश्तों में:
- क्षमा लाता है
- समझ (Understanding) बढ़ाता है
- इगो कम करता है
- Communication सुधारता है
- Clarity लाता है
जिस व्यक्ति में समत्व है, उसके आसपास वातावरण शांत और सुखद रहता है।
III. समत्व योग और सफलता (Success Psychology)
आज सफलता का सबसे बड़ा अवरोध “Outcome fear” है:
- “अगर मैं fail हुआ तो?”
- “लोग क्या कहेंगे?”
- “अगर परिणाम खराब आया तो?”
- “अगर मैं जीत नहीं पाया तो?”
कृष्ण इसे “असफलता का भय” कहते हैं। यह भय मनुष्य को कमजोर, anxious और confused बना देता है।
लेकिन समत्व योग एक अद्भुत सूत्र देता है:
“Do your best. Forget the rest.”
जब व्यक्ति परिणाम को छोड़ देता है— तब उसका mind:
- अधिक creative होता है
- अधिक focused होता है
- अधिक productive होता है
यही सर्वोच्च सफलता का रहस्य है।
IV. समत्व योग और Leadership (नेतृत्व)
एक नेता वही है जो:
- दबाव में शांत रहे
- निर्णय clear mind से ले
- टीम को motivate करे
- अतिरिक्त भावनाओं से प्रभावित न हो
कृष्ण अर्जुन को इसी leadership की शिक्षा देते हैं:
“Leader वही है जो कठिन समय में स्थिर रहे।”
समत्व योग के बिना कोई भी व्यक्ति अच्छा नेता नहीं बन सकता। क्योंकि नेतृत्व में:
- चुनौतियाँ आती हैं
- लोग बदलते हैं
- परिस्थितियाँ अनिश्चित होती हैं
- दबाव लगातार रहता है
कृष्ण कहते हैं— इन सबके बीच “स्थिर मन” ही सर्वोच्च शक्ति है।
V. समत्व योग और शांति (Inner Peace)
मनुष्य शांति बाहरी चीज़ों में ढूँढता है:
- सफलता
- धन
- संबंध
- आराम
लेकिन ये सब अस्थायी हैं। कृष्ण कहते हैं:
“सच्ची शांति भीतर से आती है, बाहर से नहीं।”
समत्व योग मन को:
- संतुष्ट
- स्थिर
- साहसी
- संतुलित
बना देता है, और शांति स्वतः पैदा हो जाती है।
भाग 3 का अंतिम सार — “समत्व योग जीवन का आधार है”
Part 3 हमें यह सिखाता है कि:
- समत्व मानसिक स्वास्थ्य को मजबूत करता है
- रिश्तों को शांत और संतुलित बनाता है
- असफलता के भय को हटाकर सफलता बढ़ाता है
- नेतृत्व क्षमता को विकसित करता है
- अंतरतम शांति प्रदान करता है
“Balance your mind, and life will balance itself.”
Part 4 में हम देखेंगे कि कृष्ण समत्व को योग क्यों कहते हैं, योग का वास्तविक अर्थ क्या है, और समत्व योग कैसे मनुष्य को आध्यात्मिक उन्नति तक ले जाता है।
गीता 2:48 – भाग 4: समत्व योग का आध्यात्मिक विज्ञान — अहंकार, कर्तव्य और आत्मशुद्धि का रहस्य
कृष्ण बताते हैं — समत्व क्यों "योग" है?
कृष्ण केवल “संतुलन” शब्द नहीं कहते; वे उसे योग कहते हैं। योग का अर्थ केवल शरीर को मोड़ना नहीं है—योग का अर्थ है:
“अंतर को जोड़ना, मन को स्थिर करना, और आत्मा को प्रकट करना।”
योग वह शक्ति है जो मनुष्य को:
- भीतर से एकीकृत
- असंतुलन से मुक्त
- अहंकार से ऊपर
- प्राप्ति और अप्राप्ति के भ्रम से मुक्त
समत्व इसलिए योग कहलाता है क्योंकि यह मन को उस अवस्था में ले जाता है जहाँ वह न नीचे गिरता है, न ऊँचा उठकर भ्रमित होता है— वह मध्य में स्थिर रहता है।
I. “सिद्धि-असिद्धि” में समभाव — अद्वैत दर्शन की जड़
कृष्ण कहते हैं:
“सफलता मिले या न मिले — मन के लिए दोनों समान हों।”
यह बात सुनने में सरल, लेकिन जीवन में बेहद कठिन है। क्योंकि मनुष्य का मन “Duality” में जीना पसंद करता है:
- यह अच्छा — यह बुरा
- यह सही — यह गलत
- यह लाभ — यह हानि
- यह मेरा — यह उसका
लेकिन अद्वैत (Non-duality) का दर्शन कहता है कि दोनों अवस्थाएँ प्रकृति का हिस्सा हैं। दोनों बदलती रहती हैं। समत्व उसी अद्वैत की सीढ़ी है।
“समत्व = Duality पर विजय”
II. समत्व योग = अहंकार का विसर्जन
समत्व केवल भावनाओं को संभालना नहीं है; यह अहंकार का विसर्जन है।
अहंकार ही कहता है:
- “मुझे जीतना है।”
- “मुझे हारना नहीं है।”
- “मेरा सम्मान होना चाहिए।”
- “मेरे अनुसार होना चाहिए।”
समत्व योग अहंकार को यह सिखाता है:
“मैं सिर्फ कर्ता नहीं — मैं साधन हूँ।”
जब अहंकार हटता है, तभी व्यक्ति कार्य को “योग” की तरह करने लगता है।
III. समत्व योग = कर्म का शुद्ध रूप (Purified Action)
कृष्ण एक महत्वपूर्ण बात कहते हैं:
“फल की आसक्ति कर्म को अशुद्ध करती है।”
जब व्यक्ति परिणाम के लिए कार्य करता है, तो उसमें:
- लोभ
- डर
- लालच
- अनिश्चितता
आ जाती है। यह मन को कमजोर और कर्म को दूषित करता है।
लेकिन समत्व योग में व्यक्ति “शुद्ध कर्म” करता है — न इच्छाओं से प्रभावित, न भय से नियंत्रित।
“शुद्ध कर्म = शुद्ध मन”
IV. समत्व योग = मन का शांत समुद्र
कृष्ण मन को “समुद्र” के रूप में समझाते हैं। जिस प्रकार समुद्र की लहरें ऊपर–नीचे होती रहती हैं, वैसे ही जीवन की परिस्थितियाँ भी बदलती रहती हैं।
लेकिन समुद्र का गहराई वाला भाग हमेशा शांत रहता है। समत्व योग मन को उसी “गहरे शांत भाग” जैसा बना देता है।
“Surface waves do not disturb the depth.”
इस अवस्था में:
- क्रोध नियंत्रित रहता है
- दुख कम हो जाता है
- चिंता धीरे-धीरे खत्म होती है
- निर्णय क्षमता बढ़ती है
मनुष्य बाहरी परिस्थितियों में हिलता नहीं— वह अपनी गहरी शांति में स्थिर हो जाता है।
V. समत्व योग = आध्यात्मिक उन्नति का द्वार
कृष्ण बताते हैं कि समत्व योग मनुष्य को आध्यात्मिक उन्नति (Spiritual Growth) के तीन स्तरों तक ले जाता है:
- 1. मन का शुद्धिकरण — गलत भावनाएँ छूट जाती हैं
- 2. बुद्धि की स्पष्टता — भ्रम मिट जाते हैं
- 3. आत्मा का अनुभव — भीतर की शांति जाग जाती है
जब मन संतुलित होता है, तभी व्यक्ति स्वयं को जान पाता है। अस्थिर मन कभी आत्मज्ञान की ओर नहीं बढ़ सकता।
“स्थिर मन में ही ईश्वर उतरता है।”
भाग 4 का अंतिम सार — समत्व योग आत्मा की यात्रा का पहला कदम है
Part 4 हमें यह सिखाता है कि:
- समत्व अहंकार को समाप्त करता है
- समत्व कर्म को पवित्र बनाता है
- समत्व मन को समुद्र की गहराई जैसा शांत बनाता है
- समत्व आध्यात्मिक उन्नति की नींव है
- समत्व योग जीवन की हर परिस्थिति में सहारा देता है
“योग का आरंभ समत्व से होता है, और अंत आत्मज्ञान में।”
Part 5 में हम देखेंगे: समत्व योग कैसे मनुष्य को दृढ़, साहसी, निडर और कर्तव्य-परायण बनाता है, और क्यों कृष्ण इसे अर्जुन की सबसे बड़ी शक्ति बताते हैं।
गीता 2:48 – भाग 5: समत्व योग का अंतिम परिणाम — साहस, निडरता, निर्णय-शक्ति और आत्मज्ञान की ओर यात्रा
अर्जुन की आंतरिक क्रांति — संकट से शक्ति तक का रूपांतरण
कुरुक्षेत्र का युद्ध केवल बाहरी संघर्ष नहीं था। यह अर्जुन के भीतर का युद्ध था — द्वंद्व, भ्रम, मोह, भय, जिम्मेदारी और भावनाओं का संघर्ष। गीता 2:48 वह क्षण है जहाँ कृष्ण उसे मानसिक रूप से पुनर्जन्म देते हैं।
कृष्ण कहते हैं:
“परिणाम ईश्वर पर छोड़ दो। अपने मन को संतुलन में रखो। यही तुम्हारी शक्ति है।”
अर्जुन पहली बार समझता है कि उसकी कमजोरी युद्ध नहीं, उसका अस्थिर मन था। जब मन स्थिर है, तब कठिन परिस्थितियाँ आसान हो जाती हैं।
I. समत्व योग = Fearless Living (निर्भय जीवन)
कृष्ण बताते हैं कि मनुष्य का सबसे बड़ा डर क्या है?
- हार का डर
- गलती का डर
- लोग क्या कहेंगे — इसका डर
- परिणाम खराब आने का डर
- अज्ञात भविष्य का डर
समत्व योग इन सभी डर को समाप्त कर देता है।
“He who is balanced, becomes fearless.”
क्योंकि जिसका मन परिणाम से जुड़ा नहीं, वह किसी भी स्थिति में डरेगा नहीं।
अर्जुन का भय उसी क्षण कम होना शुरू हो जाता है।
II. समत्व योग = Decision-Making Power (निर्णय क्षमता)
अस्थिर मन गलत निर्णय लेता है। इसलिए अर्जुन युद्धक्षेत्र में खड़ा होकर भी निर्णय नहीं ले पा रहा था। कभी युद्ध छोड़ने का मन करता, कभी युद्ध करने का।
लेकिन कृष्ण कहते हैं—
“Balanced mind = Clear decisions.”
समत्व योग का अभ्यास करने वाला व्यक्ति:
- घबराता नहीं
- जल्दी गुस्सा नहीं करता
- किसी भी हालत में शांत रहता है
- हर स्थिति में सही निर्णय लेता है
नेतृत्व, परिवार, व्यापार, शिक्षा — सभी में यह सबसे महत्वपूर्ण कौशल है।
III. समत्व योग = Freedom from Emotional Slavery (भावनाओं की गुलामी से मुक्ति)
कृष्ण बताते हैं कि मनुष्य दो तरह का जीवन जीता है:
- भावनाओं द्वारा नियंत्रित जीवन — दुख, गुस्सा, ईर्ष्या, चिंता, मोह...
- संतुलित मन द्वारा नियंत्रित जीवन — शांति, स्पष्टता, उत्साह, सतर्कता...
समत्व योग भावनाओं को दबाता नहीं, उन्हें सही रूप में बहने देता है।
“Emotion is energy. Balance converts it into power.”
समत्व योग व्यक्ति को भावनाओं का मालिक बना देता है, उनका गुलाम नहीं।
IV. समत्व योग = Purity in Karma (कर्म की पूर्ण पवित्रता)
यदि मनुष्य परिणाम की लालसा से कार्य करता है, तो उसका कर्म अशुद्ध हो जाता है:
- लालच
- ईर्ष्या
- अहंकार
- भय
ये चार चीज़ें कर्म की गुणवत्ता को नष्ट कर देती हैं।
लेकिन जब व्यक्ति:
- निष्कामता
- समत्व
- शांति
- निश्चय
से कार्य करता है, तो उसका कर्म “योग” बन जाता है।
“Shuddha Karma = Shuddha Manas = Divine Result.”
इसीलिए कृष्ण कहते हैं — सफलता और असफलता, दोनों में मन समान रखो।
V. समत्व योग = Spiritual Awakening (आध्यात्मिक जागरण)
कृष्ण स्पष्ट कहते हैं — समत्व योग वहीं है जहाँ आध्यात्मिक यात्रा शुरू होती है।
जब मनुष्य:
- प्रतिस्पर्धा से ऊपर उठता है
- परिणाम से मुक्त होता है
- अहंकार से दूर होता है
- भावनाओं पर नियंत्रण पाता है
तब वह पहली बार अपने भीतर की "आत्मा" को महसूस करता है।
“स्थिर मन में ही आत्मा की आवाज़ सुनाई देती है।”
समत्व योग व्यक्ति को भीतर की रोशनी तक ले जाता है — जहाँ भय नहीं, संदेह नहीं, अहंकार नहीं, केवल शांति है।
VI. समत्व योग = Dharma (धर्म पालन)
समत्व योग अर्जुन को केवल शांति नहीं देता— यह उसे उसका कर्तव्य (धर्म) निभाने की शक्ति देता है।
धर्म पालन बिना समत्व के असंभव है, क्योंकि धर्म:
- कठिन होता है
- बलिदान मांगता है
- भावनाओं के विरुद्ध चलता है
- अहंकार को चुनौती देता है
कृष्ण अर्जुन से कहते हैं —
“स्थिर मन से लिया गया निर्णय ही धर्म है।”
जब मन परिणाम से मुक्त हो जाता है, तब कर्तव्य स्पष्ट दिखाई देता है।
VII. आधुनिक जीवन में समत्व योग की शक्ति
आज की दुनिया में:
- Competition
- Social pressure
- Stress
- Uncertainty
- Relationships conflicts
हर व्यक्ति समत्व योग से लाभ उठा सकता है— चाहे वह छात्र हो, नेता हो, माता-पिता हों, या कोई व्यवसायी।
“Stable mind = Stable life.”
भाग 5 का अंतिम सार — समत्व योग मनुष्य को “पूर्ण” बना देता है
Part 5 हमें यह सिखाता है कि समत्व योग:
- भय को समाप्त करता है
- भावनाओं पर नियंत्रण देता है
- निर्णय क्षमता बढ़ाता है
- कर्म को शुद्ध बनाता है
- धर्म पालन की शक्ति देता है
- आध्यात्मिक जागरण का द्वार खोलता है
“समत्व योग = Fearless, Wise & Peaceful Life.”
इसी के साथ Geeta 2:48 की 5-पार्ट सीरीज़ पूरी होती है— जो आपके पाठकों को जीवन बदलने वाला ज्ञान प्रदान करेगी।
FAQ – गीता 2:48 से जुड़े सामान्य प्रश्न
1. समत्व योग क्या है?
समत्व योग सफलता और असफलता, लाभ और हानि में मन को समानभाव में रखने की कला है।
2. गीता 2:48 में क्या संदेश दिया गया है?
कृष्ण कहते हैं—कर्म करो, लेकिन फल की चिंता मत करो; परिणाम में समभाव रखो।
3. समत्व योग कैसे जीवन को बदलता है?
यह मन को शांत, स्थिर और निर्णय लेने योग्य बनाता है, भावनाओं पर नियंत्रण देता है।
4. क्या समत्व योग का मतलब भावहीन होना है?
नहीं, इसका अर्थ है भावनाओं के दास न बनना और मन को संतुलित रखना।
5. आधुनिक जीवन में समत्व योग कैसे उपयोगी है?
Stress, anxiety, failure fear और relationships को संभालने में यह अत्यंत प्रभावी है।
Bhagavad Gita 2:48 – The Art of Balanced Action
Bhagavad Gita 2:48 delivers a timeless principle for living and working with inner strength. Lord Krishna advises Arjuna to perform his duties while remaining mentally balanced in both success and failure. This state of balance, Krishna explains, is true yoga.
In modern life, people often allow results to control their emotions. Success brings pride, while failure creates stress, disappointment, or self-doubt. Gita 2:48 teaches that when actions are guided by sincerity and awareness rather than emotional attachment, the mind remains calm and focused.
This verse does not promote indifference or lack of ambition. Instead, it encourages disciplined effort without emotional disturbance. When individuals detach from the anxiety of outcomes, they think more clearly, make better decisions, and perform consistently. Balance becomes a source of strength rather than weakness.
From a global and professional perspective, Gita 2:48 offers a powerful approach to work ethics and leadership. Balanced individuals handle pressure gracefully, respond thoughtfully to challenges, and maintain long-term vision. Emotional stability allows creativity, resilience, and ethical action to flourish.
Ultimately, this verse teaches that peace and performance are not opposites. When actions are performed with steadiness, awareness, and inner calm, success becomes sustainable and personal growth becomes natural.
Frequently Asked Questions
What does “balance” mean in Bhagavad Gita 2:48?
Balance means remaining calm and steady in both success and failure, without allowing results to disturb the mind.
Does Gita 2:48 discourage ambition?
No. It encourages sincere effort while removing fear, pressure, and emotional attachment to outcomes.
How can this verse be applied in daily life?
By focusing on effort, accepting results calmly, and responding thoughtfully rather than reacting emotionally.
Why is this teaching called “yoga”?
Because true yoga is inner balance during action, not withdrawal from responsibilities.

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