गीता 2:51 – भाग 1: बुद्धियोग से मोक्ष का मार्ग — कर्म से बंधन कैसे टूटता है
श्लोक 2:51 — कर्म, विवेक और मोक्ष का सूत्र
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम् ॥
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| गीता 2:51: फल त्याग से मुक्ति और शांति का मार्ग। |
गीता 2:51 – श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद
कुरुक्षेत्र की रणभूमि में अर्जुन का मन परिणामों के भय से व्याकुल था। तब श्रीकृष्ण ने शांत स्वर में कहा —
“अर्जुन, कर्म कर, पर फल को अपने मन का बंधन मत बनने दे।”
अर्जुन ने दुविधा में पूछा — “यदि मैं युद्ध करूँ, तो क्या मैं जन्म-बंधन में नहीं पड़ जाऊँगा?”
श्रीकृष्ण मुस्कराए और बोले — “बुद्धियोग से किया गया कर्म बंधन नहीं, मुक्ति बन जाता है।”
श्रीकृष्ण ने आगे समझाया कि कर्म छोड़ने से नहीं, कर्मफल की आसक्ति छोड़ने से ही जन्म-बंधन टूटता है।
अर्जुन की आँखों में भय था, पर श्रीकृष्ण के शब्दों में आश्वासन —
“धर्मपूर्वक किया गया कर्म तुझे अनामय पद तक ले जाएगा।”
उस क्षण अर्जुन समझ गया कि मोक्ष युद्ध से भागने में नहीं, विवेक से युद्ध करने में है।
भावार्थ:
बुद्धियोग से युक्त ज्ञानीजन कर्मफल को त्यागकर जन्म–मृत्यु के बंधन से मुक्त हो जाते हैं
और उस परम, रोगरहित पद (मोक्ष) को प्राप्त करते हैं।
पिछले श्लोकों से जुड़ाव — 2:49 → 2:50 → 2:51
गीता 2:49 में कृष्ण ने बुद्धियोग सिखाया। गीता 2:50 में बताया कि कर्म में कुशलता ही योग है। अब 2:51 में वे बताते हैं कि इस मार्ग का अंतिम परिणाम क्या है।
“कुशल कर्म केवल सफलता नहीं देता, वह बंधन भी तोड़ देता है।”
यह श्लोक स्पष्ट करता है कि मोक्ष कर्म छोड़ने से नहीं, कर्म के प्रति दृष्टि बदलने से मिलता है।
कर्मफल त्याग का वास्तविक अर्थ
कर्मफल त्याग का अर्थ यह नहीं कि व्यक्ति परिणाम की परवाह न करे, बल्कि इसका अर्थ है:
- परिणाम को अहंकार से न जोड़ना
- सफलता–असफलता से अपनी पहचान न बनाना
- कर्म को कर्तव्य समझकर करना
जब कर्मफल “मैं” से अलग हो जाता है, तब कर्म बंधन नहीं बनता।
“फल त्याग = पहचान की स्वतंत्रता”
जन्म–बंधन क्या है?
जन्म–बंधन केवल पुनर्जन्म का विषय नहीं, यह हर उस मानसिक चक्र को दर्शाता है जिसमें व्यक्ति फँसा रहता है:
- इच्छा → कर्म → अपेक्षा → निराशा
- सफलता → अहंकार → भय
- असफलता → हीनता → पलायन
कृष्ण कहते हैं कि बुद्धियोग इन चक्रों को तोड़ देता है।
“बंधन बाहर नहीं, भीतर बनते हैं।”
‘मनीषिणः’ — ज्ञानी कौन है?
यहाँ कृष्ण “मनीषिणः” शब्द का प्रयोग करते हैं, जिसका अर्थ है — विवेकशील व्यक्ति।
ज्ञानी वह नहीं जो बहुत जानता हो, बल्कि वह जो:
- जानते हुए भी अहंकार न करे
- कर्म करे पर आसक्त न हो
- सफलता में विनम्र रहे
- असफलता में स्थिर रहे
“Wisdom is stability, not information.”
अर्जुन के लिए इस श्लोक का महत्व
अर्जुन का सबसे बड़ा भय था — “क्या यह युद्ध मुझे पाप और बंधन में बाँध देगा?”
कृष्ण उत्तर देते हैं:
“यदि कर्म विवेक से है, तो वह बंधन नहीं, मुक्ति बनेगा।”
यह श्लोक अर्जुन को आश्वासन देता है कि धर्मपूर्वक किया गया कर्म मोक्ष के विरुद्ध नहीं, बल्कि उसका साधन है।
आधुनिक जीवन में गीता 2:51
आज लोग बंधन में हैं:
- Career anxiety
- Status pressure
- Comparison
- Fear of failure
गीता 2:51 कहती है:
“कर्म करो, पर अपनी कीमत परिणाम से मत जोड़ो।”
यही दृष्टि मानसिक शांति और आंतरिक स्वतंत्रता देती है।
भाग 1 का सार — मोक्ष कर्म छोड़ने से नहीं, आसक्ति छोड़ने से
Part 1 से स्पष्ट होता है कि:
- बुद्धियोग कर्म को मुक्ति का साधन बनाता है
- कर्मफल त्याग का अर्थ पहचान की स्वतंत्रता है
- जन्म–बंधन मानसिक चक्र भी हैं
- ज्ञानी वह है जो स्थिर रहता है
- मोक्ष कर्म से भागने से नहीं मिलता
“Detach from outcomes, not from action.”
Part 2 में हम देखेंगे: कर्मफल त्याग कैसे व्यावहारिक जीवन में लागू करें, इच्छा और वासना का अंतर, और मोक्ष की ओर पहला वास्तविक कदम।
गीता 2:51 – भाग 2: कर्मफल-त्याग को जीवन में कैसे उतारें — इच्छा, वासना और विवेक का संतुलन
कर्मफल-त्याग: सिद्धांत नहीं, अभ्यास
गीता 2:51 में कर्मफल-त्याग को मोक्ष का मार्ग बताया गया है। पर प्रश्न उठता है—इसे रोज़मर्रा के जीवन में कैसे जिया जाए? कृष्ण का उत्तर व्यावहारिक है: दृष्टि बदलिए, कर्म वही रहेगा।
“काम वही, पकड़ अलग।”
I. इच्छा बनाम वासना — सूक्ष्म अंतर
कर्म के पीछे प्रेरणा यदि स्पष्ट न हो, तो बंधन बनता है। कृष्ण यहाँ दो शब्दों को अलग करते हैं:
- इच्छा — उद्देश्यपूर्ण चाह, जो विवेक से नियंत्रित हो
- वासना — असंयमित लालसा, जो परिणाम से चिपकी हो
इच्छा कर्म को दिशा देती है; वासना कर्म को बाँध देती है।
“Desire with discipline liberates; craving with compulsion binds.”
II. कर्मफल-त्याग का पहला कदम — पहचान को अलग करना
बंधन तब बनता है जब हम कहते हैं:
- “मेरी कीमत मेरे परिणाम से है”
- “सफलता = मैं अच्छा हूँ”
- “असफलता = मैं असफल हूँ”
कर्मफल-त्याग का अभ्यास कहता है:
- मैं प्रयास हूँ, परिणाम नहीं
- मैं प्रक्रिया हूँ, आँकड़ा नहीं
“Detach identity from outcome.”
III. परिणाम की चिंता क्यों लौट आती है?
क्योंकि समाज, तुलना और आदतें हमें फिर खींच लेती हैं। पर कृष्ण समाधान देते हैं—प्रक्रिया-केंद्रित दिनचर्या।
- स्पष्ट दैनिक लक्ष्य
- नियत समय पर अभ्यास
- सीख की माप, न कि केवल जीत
- नियमित आत्म-समीक्षा
“Process anchors the mind.”
IV. कर्मफल-त्याग और जिम्मेदारी
कर्मफल-त्याग का अर्थ गैर-जिम्मेदारी नहीं है। कृष्ण स्पष्ट करते हैं कि:
- प्रयास पूरा हो
- मानक ऊँचे हों
- गलती पर सुधार हो
अंतर बस इतना है कि अहंकार और भय कर्म को नहीं चलाते।
“Responsibility without anxiety is mastery.”
V. असफलता का नया अर्थ
फल-आसक्ति असफलता को पहचान बना देती है। कर्मफल-त्याग असफलता को फीडबैक बनाता है।
- क्या सीखा?
- कौन-सी प्रक्रिया सुधरे?
- अगला छोटा कदम क्या?
“Failure becomes data, not drama.”
VI. अर्जुन का अभ्यास — युद्ध से पहले का मन
अर्जुन को सिखाया जा रहा है कि युद्ध का परिणाम उसकी पहचान न बने। उसका धर्म है—न्याय के लिए खड़ा होना। कर्मफल-त्याग उसे भय से मुक्त करता है।
“Duty done with wisdom dissolves fear.”
VII. आधुनिक जीवन में अनुप्रयोग
छात्र: अभ्यास पर ध्यान → सीख तेज़।
प्रोफेशनल: प्रक्रिया पर फोकस → गुणवत्ता स्थिर।
लीडर: विवेकपूर्ण निर्णय → भरोसा।
“Practice detachment daily.”
भाग 2 का सार — त्याग से नहीं, दृष्टि से मुक्ति
Part 2 सिखाता है कि:
- इच्छा और वासना अलग हैं
- पहचान को परिणाम से अलग करना आवश्यक है
- प्रक्रिया-केंद्रित आदतें बंधन घटाती हैं
- जिम्मेदारी चिंता के बिना निभाई जा सकती है
- असफलता सीख बनती है
“Change the lens, not the work.”
Part 3 में हम देखेंगे: कर्मफल-त्याग कैसे मन को स्थिर करता है, इच्छाओं का परिष्कार कैसे होता है, और जन्म–बंधन के चक्र कैसे ढीले पड़ते हैं।
गीता 2:51 – भाग 3: कर्मफल-त्याग का मनोवैज्ञानिक प्रभाव — मन की स्थिरता और जन्म-बंधन का क्षय
कृष्ण का आंतरिक विज्ञान — मन क्यों अशांत रहता है?
गीता 2:51 केवल आध्यात्मिक श्लोक नहीं, बल्कि मन के गहरे विज्ञान का उद्घाटन है। कृष्ण स्पष्ट करते हैं कि मन अशांत इसलिए नहीं होता क्योंकि काम अधिक है, बल्कि इसलिए कि मन परिणाम से चिपका रहता है।
“Work tires the body, attachment tires the mind.”
I. मन की अस्थिरता का मूल कारण
मन बार-बार तीन दिशाओं में भागता है:
- भविष्य की चिंता
- बीते हुए पर पछतावा
- तुलना और अपेक्षा
इन तीनों का मूल कारण है — कर्मफल-आसक्ति। जब मन परिणाम से जुड़ जाता है, तो वह वर्तमान कर्म से कट जाता है।
“Attachment pulls the mind out of the present.”
II. कर्मफल-त्याग और मानसिक स्थिरता
जब व्यक्ति यह स्वीकार कर लेता है कि परिणाम पूर्णतः उसके नियंत्रण में नहीं हैं, तो मन स्वतः शांत होने लगता है।
- चिंता कम होती है
- निर्णय स्पष्ट होते हैं
- भावनात्मक उतार-चढ़ाव घटता है
- नींद और एकाग्रता सुधरती है
“Acceptance stabilizes the mind.”
III. इच्छाओं का परिष्कार — दमन नहीं, दिशा
कृष्ण इच्छाओं को दबाने की बात नहीं करते। वे कहते हैं कि इच्छाओं को परिष्कृत करना चाहिए।
परिष्कृत इच्छा:
- विवेक से जुड़ी होती है
- दीर्घकालिक हित देखती है
- दूसरों को नुकसान नहीं पहुँचाती
जब इच्छा परिष्कृत होती है, तो वह वासना नहीं बनती।
“Refined desire frees; raw craving binds.”
IV. जन्म–बंधन का मनोवैज्ञानिक अर्थ
जन्म–बंधन को केवल पुनर्जन्म तक सीमित समझना अधूरा है। यह हर उस मानसिक चक्र को दर्शाता है जिसमें हम बार-बार फँसते हैं:
- इच्छा → अपेक्षा → निराशा
- सफलता → अहंकार → भय
- असफलता → हीनता → पलायन
कर्मफल-त्याग इन चक्रों को ढीला करता है।
“Break the cycle, not the action.”
V. पहचान (Identity) का रूपांतरण
जब पहचान परिणाम से जुड़ी होती है, तो मन अस्थिर रहता है। कृष्ण पहचान को प्रयास से जोड़ते हैं।
- मैं सीखने वाला हूँ
- मैं प्रयास करने वाला हूँ
- मैं सुधार की प्रक्रिया हूँ
यह पहचान मन को स्थिर और साहसी बनाती है।
“Identity rooted in effort is unshakable.”
VI. अर्जुन का आंतरिक परिवर्तन
इस बिंदु पर अर्जुन के भीतर बड़ा बदलाव होता है। वह समझने लगता है कि उसका दुख युद्ध से नहीं, बल्कि परिणाम-भय से पैदा हुआ था।
कृष्ण का उपदेश उसे यह शक्ति देता है कि वह कर्म को कर्तव्य के रूप में अपनाए, न कि पहचान के रूप में।
“Fear dissolves when duty becomes clear.”
VII. आधुनिक जीवन में प्रयोग
आज के समय में:
- Career stress → पहचान को परिणाम से अलग करें
- Relationship anxiety → अपेक्षा घटाएँ
- Comparison → प्रक्रिया पर ध्यान
“Stability is a daily practice.”
भाग 3 का सार — मन की मुक्ति, कर्म की निरंतरता
Part 3 हमें सिखाता है कि:
- मन की अशांति का मूल कारण आसक्ति है
- कर्मफल-त्याग मानसिक स्थिरता देता है
- इच्छाओं का परिष्कार आवश्यक है
- जन्म–बंधन मानसिक चक्र भी हैं
- पहचान बदलते ही भय घटता है
“Free the mind, continue the work.”
Part 4 में हम देखेंगे: कर्मफल-त्याग कैसे सामाजिक, नैतिक और व्यावहारिक जीवन को शुद्ध करता है, और कैसे यह व्यक्ति को दूसरों के लिए प्रेरणा बनाता है।
गीता 2:51 – भाग 4: कर्मफल-त्याग का सामाजिक और नैतिक प्रभाव — आदर्श जीवन और सेवा का मार्ग
कर्मफल-त्याग केवल व्यक्तिगत नहीं, सामाजिक साधना
अक्सर कर्मफल-त्याग को केवल व्यक्तिगत मुक्ति से जोड़ा जाता है, लेकिन गीता 2:51 बताती है कि इसका प्रभाव पूरे समाज पर पड़ता है। जब व्यक्ति फल-आसक्ति से मुक्त होकर कर्म करता है, तो उसका व्यवहार निष्पक्ष, शांत और विश्वसनीय बनता है।
“Free individuals create healthy societies.”
I. नैतिकता (Ethics) का सुदृढ़ आधार
फल-आसक्ति नैतिकता को कमजोर करती है। लाभ, डर और दबाव व्यक्ति को समझौते करने पर मजबूर करते हैं। कर्मफल-त्याग नैतिकता को मजबूत करता है क्योंकि:
- निर्णय विवेक से होते हैं
- लाभ से अधिक धर्म महत्वपूर्ण होता है
- गलत साधनों की आवश्यकता नहीं रहती
“Ethics thrive where attachment ends.”
II. सेवा-भाव और कर्मफल-त्याग
जब कर्म फल के लिए नहीं, कर्तव्य के लिए होता है, तो वही कर्म सेवा बन जाता है। सेवा में:
- अहंकार नहीं होता
- श्रेय की चाह नहीं होती
- कार्य में पवित्रता होती है
कृष्ण का कर्मयोग वास्तव में सेवा-योग है।
“Service is work purified of ego.”
III. नेतृत्व और कर्मफल-त्याग
नेता यदि फल-आसक्ति से ग्रस्त हो, तो निर्णय स्वार्थपूर्ण हो जाते हैं। कर्मफल-त्याग नेतृत्व को:
- निष्पक्ष बनाता है
- दीर्घकालिक सोच देता है
- जन-विश्वास बढ़ाता है
“Selfless leadership earns lasting trust.”
IV. परिवार और संबंधों में प्रयोग
रिश्तों में दुख तब आता है जब अपेक्षाएँ बढ़ जाती हैं। कर्मफल-त्याग रिश्तों को सरल बनाता है:
- कर्तव्य निभाना, बदले की अपेक्षा बिना
- प्रेम देना, नियंत्रण बिना
- सेवा करना, मान्यता बिना
“Love deepens when expectations soften.”
V. कर्मफल-त्याग और सामाजिक स्थिरता
यदि समाज में अधिक लोग फल-आसक्ति से मुक्त होकर कर्म करें, तो:
- भ्रष्टाचार घटे
- प्रतिस्पर्धा स्वस्थ बने
- सहयोग बढ़े
- विश्वास मजबूत हो
गीता का यह संदेश व्यक्तिगत मुक्ति के साथ-साथ सामूहिक कल्याण का मार्ग भी है।
“Detached action sustains civilization.”
VI. अर्जुन का सामाजिक उत्तरदायित्व
अर्जुन का युद्ध केवल व्यक्तिगत नहीं, सामाजिक न्याय से जुड़ा था। कृष्ण उसे बताते हैं कि फल-आसक्ति छोड़कर किया गया कर्म समाज के लिए भी कल्याणकारी होता है।
“Personal duty protects social order.”
VII. आधुनिक जीवन में सामाजिक प्रयोग
आज के समय में:
- ऑफिस में ईमानदार कार्य
- व्यापार में निष्पक्ष व्यवहार
- शिक्षा में चरित्र निर्माण
- सेवा कार्य में निस्वार्थ भाव
ये सभी कर्मफल-त्याग के व्यावहारिक रूप हैं।
“Selfless action is social strength.”
भाग 4 का सार — व्यक्तिगत शुद्धि से सामाजिक कल्याण
Part 4 हमें सिखाता है कि:
- कर्मफल-त्याग नैतिकता को मजबूत करता है
- सेवा-भाव को जन्म देता है
- नेतृत्व को निष्पक्ष बनाता है
- रिश्तों में शांति लाता है
- समाज में स्थिरता बढ़ाता है
“Selfless individuals build stable societies.”
Part 5 में हम देखेंगे: कर्मफल-त्याग का अंतिम फल क्या है, कैसे यह व्यक्ति को मोक्ष की ओर ले जाता है, और क्यों कृष्ण इसे परम पद का मार्ग कहते हैं।
गीता 2:51 – भाग 5: कर्मफल-त्याग का अंतिम फल — मोक्ष की तैयारी, परम पद और रूपांतरित जीवन
परम पद (अनामयम्) का अर्थ — रोगरहित, भयमुक्त अवस्था
गीता 2:51 में कृष्ण जिस अनामय पद की बात करते हैं, वह केवल मृत्यु के बाद की स्थिति नहीं, बल्कि यहाँ और अभी अनुभव होने वाली अवस्था है। अनामय का अर्थ है—जहाँ भय, चिंता और मानसिक रोग नहीं रहते।
“Liberation is not escape from life; it is freedom within life.”
I. मोक्ष की तैयारी कैसे होती है?
कृष्ण स्पष्ट करते हैं कि मोक्ष कोई अचानक घटना नहीं, बल्कि दैनिक अभ्यास का परिणाम है। कर्मफल-त्याग इस अभ्यास की नींव है।
- विवेक से निर्णय
- परिणाम से पहचान अलग
- प्रक्रिया-केंद्रित कर्म
- अहंकार का क्षय
“Daily detachment prepares the soul.”
II. जन्म–बंधन से मुक्ति — चक्र का टूटना
जन्म–बंधन केवल पुनर्जन्म का विषय नहीं, यह उन मानसिक चक्रों का भी संकेत है जो हमें बाँधते हैं।
- इच्छा → अपेक्षा → निराशा
- सफलता → अहंकार → भय
- असफलता → हीनता → पलायन
कर्मफल-त्याग इन चक्रों को ढीला करता है, क्योंकि पहचान परिणाम से मुक्त हो जाती है।
“Break the loop by changing the lens.”
III. अहंकार का क्षय और करुणा का उदय
जब कर्म फल के लिए नहीं होता, तो ‘मैं’ केंद्र से हटता है। इसके स्थान पर करुणा, सेवा और समभाव आते हैं।
- श्रेय की लालसा घटती है
- दोषारोपण कम होता है
- सेवा-भाव स्वाभाविक बनता है
“Ego dissolves, compassion rises.”
IV. स्थिर सुख — परिस्थितियों से परे
फल-आसक्ति वाला सुख परिस्थितियों पर निर्भर होता है। कर्मफल-त्याग से उत्पन्न सुख स्थिर होता है, क्योंकि वह भीतर से आता है।
- कम उतार-चढ़ाव
- शांत आत्मसम्मान
- संतुलित भावनाएँ
“Stable joy is born of detachment.”
V. अर्जुन का पूर्ण आश्वासन
इस श्लोक के माध्यम से अर्जुन को यह आश्वासन मिलता है कि धर्मपूर्वक, विवेक से किया गया कर्म उसे बंधन में नहीं बाँधेगा।
“Right action guided by wisdom liberates.”
यही आश्वासन उसे आगे के उपदेशों को ग्रहण करने के लिए तैयार करता है।
VI. आधुनिक जीवन में अंतिम प्रयोग
आज के जीवन में कर्मफल-त्याग का अर्थ:
- काम को पूजा बनाना
- परिणाम से मूल्यांकन नहीं
- नैतिकता से समझौता नहीं
- सीख को प्राथमिकता
“Work as worship, results as lessons.”
भाग 5 का अंतिम सार — मुक्ति कर्म से, दृष्टि बदलने से
इस अंतिम भाग से स्पष्ट होता है कि:
- मोक्ष कर्म छोड़ने से नहीं मिलता
- आसक्ति छोड़ने से मिलता है
- कर्मफल-त्याग दैनिक अभ्यास है
- अहंकार क्षय से करुणा बढ़ती है
- स्थिर सुख भीतर से आता है
“Detach from outcomes, live in freedom — यही गीता 2:51 का अंतिम संदेश है।”
FAQ – गीता 2:51 से जुड़े प्रश्न
गीता 2:51 का मुख्य संदेश क्या है?
बुद्धियोग से युक्त होकर कर्मफल त्याग करने से जन्म-बंधन से मुक्ति मिलती है।
कर्मफल-त्याग का वास्तविक अर्थ क्या है?
परिणाम से अपनी पहचान न जोड़ना और विवेक से कर्म करना।
क्या कर्मफल-त्याग का अर्थ जिम्मेदारी छोड़ना है?
नहीं, इसका अर्थ है जिम्मेदारी निभाते हुए अहंकार और भय छोड़ना।
गीता 2:51 आधुनिक जीवन में कैसे उपयोगी है?
यह तनाव कम करती है, मन को स्थिर करती है और नैतिक निर्णय में सहायता करती है।
अनामय पद क्या है?
वह अवस्था जहाँ भय, चिंता और मानसिक रोग नहीं रहते—आंतरिक स्वतंत्रता।
Bhagavad Gita 2:51 – Wisdom That Leads to Freedom
Bhagavad Gita 2:51 explains how wisdom transforms both action and destiny. Krishna teaches that wise individuals act with clarity and detachment, freeing themselves from the bondage created by the results of actions. By renouncing excessive attachment to outcomes, they move toward a higher and more peaceful state of life.
In daily life, people often become trapped by expectations—success, recognition, financial gain, or approval from others. These expectations bind the mind, creating stress, fear, and disappointment. Gita 2:51 offers a solution: act with intelligence and awareness, but release obsession with results.
This verse highlights that true progress is not only external achievement, but inner freedom. When actions are guided by wisdom, the mind remains calm and balanced. Such individuals are not shaken by success nor discouraged by failure. They learn from outcomes without being controlled by them.
From a modern and international perspective, this teaching is highly relevant to professional and personal life. Wisdom-based action improves decision-making, emotional resilience, and long-term success. Leaders who work without fear of results inspire trust and stability. Professionals who detach from constant pressure experience greater focus and fulfillment.
Ultimately, Bhagavad Gita 2:51 teaches that freedom begins in the mind. When we work with wisdom instead of attachment, life becomes lighter, more meaningful, and aligned with higher purpose.
Frequently Asked Questions
What is the main message of Bhagavad Gita 2:51?
It teaches that wisdom and detachment from results free a person from mental bondage.
Does this verse suggest giving up work?
No. It encourages performing duties with awareness while letting go of unhealthy attachment to outcomes.
How does Gita 2:51 help reduce stress?
By removing constant worry about results, the mind becomes calmer and more focused.
Is this teaching relevant to modern professional life?
Yes. It supports better decisions, emotional balance, and sustainable success.

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